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शरण लेते हैं।
जो लोग चर्चों, मंदिरों और धर्मस्थानों में जाते हैं, उनमें शुद्ध भावना से जानेवाले बहुत कम होते हैं। अधिकतर लोग तो पाप के फल से डरकर जाते हैं। यह स्वार्थ है। यदि भगवान ऐसे व्यक्तियों को माफ कर देते हैं तो इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है? पर मैं समझता हूं कि भगवान इतने भोले नहीं हैं, जो लोगों के साथ ऐसा सौदा करते रहेंगे। ......"वही उपासना उपादेय है
परंतु मेरे कहने का यह अर्थ आप न निकालें कि उपासना सर्वथा अनुपयोगी है। उपासना भी धर्म का एक पक्ष है। हां, रूढ़ उपासना से धर्म का कोई संबंध नहीं है। वही उपासना धर्म है, जो हमारे जीवन की पवित्रता में हेतुभूत बनती है, उसका साधन बनती है। जिस उपासना का जीवन की पवित्रता से कोई संबंध नहीं रहता, उसकी हमारे लिए भी कोई उपादेयता नहीं है।
__मैं अनुभव कर रहा हूं कि क्रियाकांडों की रूढ़ता को देखकर आज के बुद्धिवादी लोग धर्म से घृणा करने लगे हैं। वे उससे कोसों दूर रहना चाहते हैं। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि धर्म घृणा करने-जैसा तत्त्व नहीं है। वह तो जीवन जीने की स्वस्थ पद्धति है। वे घृणा करने के स्थान पर उसे सही रूप में जीवन में उतारें और एक नया आदर्श उपस्थित करें। इससे उनका स्वयं का जीवन तो कृतार्थ होगा ही, रूढ़िचुस्त लोगों को भी सोचने का मौका मिलेगा। वे भी धर्म को सही रूप में स्वीकार करने के लिए उत्प्रेरित होंगे।
__ पूछा जा सकता है कि धर्म के मौलिक तत्त्व कौन-कौन-से हैं। धर्म के मौलिक तत्त्व हैं-सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या और सदाचार। मैं मानता हूं, ये ऐसे तत्त्व हैं, जिनसे कोई बड़े-से-बड़ा बुद्धिवादी भी घृणा नहीं कर सकता। यदि कोई घृणा करता है तो मानना चाहिए कि वह जीवन जीने की स्वस्थ पद्धति से घृणा करता है, सुख और शांति से घृणा करता है।
बंधुओ! धर्म के इन्हीं मौलिक तत्त्वों को जीवन का आधार बनाकर हम लोग आगे बढ़ रहे हैं। इससे हमें अनिर्वचनीय सुख और शांति की अनुभूति हो रही हैं। इस सुख-शांति में जन-जन को सहभागी बनाने के लिए हम प्रयत्नशील हैं। हालांकि हम इस तथ्य से सुपरिचित हैं कि सब लोग हमारी तरह गृहत्यागी नहीं हो सकते, अकिंचन नहीं बन सकते। वे
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- आगे की सुधि लेइ
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