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अपेक्षा ही क्या होती? सत्संग का माहात्म्य न होता तो शास्त्रों में इसका उल्लेख नहीं होता। सत्संग से क्या मिलता है, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने भगवती सूत्र में कहा है
सवणे नाणे विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संजमे।
अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी।। सत्संग जीवन-विकास का प्रारंभ भी है और जीवन-विकास की चरम सीमा भी। कैसे? सत्संग में आने से चाहे-अनचाहे दो हित वचन सुनने को मिलते हैं। व्यक्ति संत-वाणी को स्वीकार करे या नहीं, प्रतिज्ञा करे या नहीं, ये आगे की बाते हैं, पर दो क्षण के लिए उसने शास्त्रवचनामृत का पान किया, यह भी एक विशेष बात है। शास्त्रों में जिन चार दुर्लभ बातों का उल्लेख है, उनमें एक शास्त्र-श्रवण है।
सुनने के बाद ज्ञान होता है। ज्ञान पढ़ने से भी हो सकता है, पर सुनने की बात कुछ अलग ही है। यदि मात्र पढ़ने से ज्ञान होता हो तो बहुत-सी पुस्तकें पड़ी हैं, उनसे ही काम चल जाता। फिर कौन गुरु को सुनने का प्रयास करता?
प्राचीन काल में अक्षर-विन्यास था ही नहीं, अतः सारा ज्ञान गुरु द्वारा ही मिलता था। आज साधनों के विकास से पुस्तकों का बाहुल्य हो गया है, फिर भी रहस्य समझने के लिए गुरु की अपेक्षा रहती ही है। भागवत, गीता, दशवैकालिक, उत्तराध्ययनको उलटने-पलटनेवाले बहुत हो सकते हैं, पर उनका रहस्य समझने के लिए गुरु का सान्निध्य पाना जरूरी है।
अपवाद रूप में कुछ व्यक्तियों को हम यहां छोड़ देते हैं। तीर्थंकर आदि स्वयंबुद्ध होते हैं। वे कभी सत्संग नहीं करते, फिर भी उनके ज्ञान का स्रोत खुल जाता है, पर साधारणतः हर व्यक्ति के लिए गुरु का पथदर्शन आवश्यक है। ...."वह ज्ञान अज्ञान है
पर ज्ञान का अर्थ दुनिया की जानकारी नहीं है। एक व्यक्ति भूगोल का अच्छा ज्ञाता है, खगोल-विज्ञान का महापंडित है, परंतु उसे यदि स्वयं की पहचान नहीं है तो उसके इस ज्ञान का बहुत महत्त्व नहीं है, बल्कि यह ज्ञान अज्ञान है। उल्लेखनीय बात यह है कि इस बिंदु पर सभी धर्मशास्त्र एकमत हैं। अतः आत्मज्ञान का लक्ष्य हर व्यक्ति के समक्ष स्पष्ट रहना
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आगे की सुधि लेड
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