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४५ : आचार और विचार से पवित्र बनें
भारतीय संस्कृति का स्वरूप
भारतीय संस्कृति त्यागप्रधान संस्कृति रही है। इस संस्कृति में अनेक महान-महान व्यक्ति हुए हैं। प्रखर वक्ता, लेखक, सम्राट, धनकुबेर और महाजन पैदा हुए हैं। देश के लिए बलिदान होनेवाले वीरों ने जन्म लिया है। हालांकि उन सबको भारत ने सम्मान दिया है, फिर भी अंतर्वृत्ति में सदा अकिंचनों के प्रति ही अनुराग रहा है। वर्तमान में यह दृष्टिकोण कुछ बदल-सा रहा है। परिमाणतः त्याग, अहिंसा और सत्य के प्रति आस्था कम हो रही है। लोग भौतिक प्रवाह में बह रहे हैं, पर इसके बावजूद संतों के प्रति उनकी जो श्रद्धा है, भक्ति है, वह संस्कारगत है ।
संतों की प्रतिष्ठा-त्याग
संत लोग विद्वान होते हैं, कवि होते हैं, लेखक होते हैं, चिंतक होते हैं, वक्ता होते हैं पर इन सब बातों से उनकी वास्तविक महत्ता प्रकट नहीं होती। उनकी वास्तविक महत्ता है- त्याग। इसी त्याग के कारण साधारण लोगों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े धनपति और राजे-महाराजे भी उनकी चरण- - धूलि अपने मस्तक पर लगाकर धन्यता की अनुभूति करते हैं। वस्तुतः त्याग ही उन्हें संत की प्रतिष्ठा प्रदान करता है। यदि उनके जीवन में त्याग न हो तो ऊपर की अन्य सारी विशेषताएं धरी की धरी रह जाती हैं। संतों के बारे में राजर्षि भर्तृहरि ने कहा है
परार्थे ।
नम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणकथनैः स्वान् गुणान् ख्यापयन्तः, स्वार्थान् संपादयन्तो विततपृथुतरारम्भयत्नाः क्षान्त्यैनाक्षेपरूक्षाक्षरमुखरमुखान् दुर्जनान् दूषयन्तः, सन्तः साश्चर्यचर्या जगति बहुमताः कस्य नाभ्यर्चनीयाः ॥ संत स्वयं विनम्र होते हैं, जनता उन्हें उन्नत मान लेती है। वे दूसरे के गुणों की व्याख्या करते हैं, जिससे उनके गुण स्वयं
आगे की सुधि लेइ
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