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हो सकते हैं । काल तथा परमाणु- पुद्गल दोनों अप्रदेशी हैं।
जीवास्तिकाय (एक जीव) के भी असंख्य प्रदेश हैं।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और जीवास्तिकाय (एक (जीव ) - इन चारों के प्रदेशों की संख्या समान है।
प्रदेश को 'अविभागी परिच्छेद' भी कहा जाता है। पौद्गलिक वस्तु से पृथक हो जाने पर प्रदेश 'परमाणु' कहलाता है। देखें- पुद्गल, परमाणु । महाव्रती - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांचों का पूर्ण / अखंडित रूप महाव्रत है। इसमें हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का मन, वचन व काया से कृत, कारित एवं अनुमोदनवर्जन के साथ आजीवन त्याग करना होता है ।
महाव्रत को स्वीकार करनेवाला महाव्रती कहलाता है ।
मार्गानुसारी - कोई भी जीव ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तपरूप मोक्ष-मार्ग की अंशरूप में भी स्वल्प आराधना करता है, वह मार्गानुसारी कहलाता है। यहां मार्ग मोक्ष मार्ग का सूचक है।
मुहूर्त - अड़तालीस मिनट का कालमान मुहूर्त कहलाता है।
दो समय से लेकर अड़तालीस मिनट में एक समय कम तक का कालमान अंतर्मुहूर्त कहलाता है।
मोक्ष - चेतना का वह चरम स्तर, जहां पूर्व समस्त कर्मों का बंधन क्षीण हो जाता है और नए बंधन की प्रक्रिया बिलकुल बंद हो जाती है। इस अवस्था को प्राप्त आत्मा ही परमात्मा कहलाती है। कर्म-मुक्त अवस्था को प्राप्त होने पर वह जन्म, मरण, रोग, शोक, दुःख आदि समस्त सांसारिक दुविधाओं से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाती है। उसका पुनरवतार नहीं होता।
कर्म - मुक्त दशा में आत्मा मात्र एक समय में लोकाग्रस्थित स्थानविशेष में पहुंच जाती है। इस स्थान को सिद्धक्षेत्र या सिद्धशिला कहा जाता है। कभी-कभी इसे भी मोक्ष कहते हैं ।
मोहकर्म, मोहनीय कर्म-प्राणी के दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र ( आचार) को विकृत करनेवाले कर्म को मोह कर्म या मोहनीय कर्म कहते हैं।
मोहनीय कर्म की मुख्य दो प्रकृतियां हैं । —दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय |
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