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को भयभीत बनाता है, वह भी हिंसक है। (१३२) • अभय और अहिंसा दोनों एक ही हैं। जो कोई व्यक्ति भयभीत होता है,
वह स्वयं की हिंसात्मक प्रवृत्तियों के कारण ही होता है। अतः अभय बनने के लिए हिंसा से उपरत होना जरूरी है। (१३३) अहिंसक वह होता है, जो मार सकता है, फिर भी किसी को मारता
नहीं। (१३४) • विचार-भेद के कारण लड़ना बहुत बड़ा पाप है। (१३६) • जब सही तत्त्व के प्रति व्यक्ति श्रद्धानिष्ठ हो जाता है, तब गलत
तत्त्व-बुराई के प्रति ग्लानि का भाव स्वतः पैदा हो जाता है। (१५६) • वही धर्म वास्तव में धर्म है, जो सुधार की बात करे। जिस धर्म में
सुधार की चर्चा नहीं, कार्यक्रम नहीं, उसे धर्म कहने का कोई औचित्य
नहीं है। (१६३) • जब तक जीवनगत धर्म की बात मूल्य नहीं पाती, तब तक वह हमारा
बहुत हित नहीं कर सकता। (१६४) धर्म का संबंध आस्था से है। जन्म से उसका कोई संबंध है ही नहीं। वह तो समझ-बूझकर स्वीकार करने का तत्त्व है। समझ-बूझकर स्वीकार किया जानेवाला धर्म की आत्मगत हो सकता है। (१६४)
आत्मगत धर्म ही जीवन के लिए वरदान साबित होता है। (१६४) • मुनि का धर्म सरलता है तो गृहस्थ का धर्म वक्रता कैसे हो सकेगा?
(१६६) • गुस्सा करनेवाला व्यक्ति दूसरों का नुकसान करे या न भी करे, पर __ अपना अहित तो कर ही लेता है। (१७१) जिस दर्शन या धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह आदि का आदर्श रूप नहीं है, वह अधूरा है। इसी प्रकार जिसमें इनका व्यावहारिक रूप नहीं है, वह भी अधूरा है। (१८२) धार्मिकता के अभाव में उपासना का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। (१८४) • विद्यार्थी की कोई उम्रविशेष नहीं होती, यह तो एक मानसिकताविशेष
का नाम है। व्यक्ति का मानस जब तक जिज्ञासु है, ग्रहणशील है, वह विद्यार्थी है। (१८६)
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