Book Title: Aage ki Sudhi Lei
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 366
________________ • खुद को पूर्ण मानना अपने विकास का द्वार बंद करना है, जबकि विद्यार्थी बनकर रहना सतत विकास की यात्रा है । (१८६) • स्वयं पढ़ने से जितना ज्ञान प्राप्त नहीं होता, उतना अध्यापन से होता है, बशर्ते कि जिज्ञासा का भाव मौजूद हो, ग्रहण करने की मानसिकता बनी हुई हो । (१८७) व्यक्ति निर्माण से बढ़कर और कोई निर्माण नहीं है । (१९५) हिंसा की मनोवृत्ति ही व्यक्ति के दुःख और अशांति का मूलभूत कारण है। (१९६) • सुख और शांति का रास्ता यही है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सीमा तक स्वयं को अनुशासित करे कि मैं दूसरों का सुख नहीं छीनूंगा, दूसरों की अशांति का कारण नहीं बनूंगा । (१९६) • धर्म तो अजन्मा तत्त्व है, शाश्वत तत्त्व है। आत्मा के साथ इसका तादात्म्य है। जब आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व है, तब धर्म का त्रैकालिक अस्तित्व स्वयंसिद्ध है । (२०३) • धर्म जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। उससे वह पृथक हो नहीं सकता। जो धर्म जीवन से पृथक होता है, वह वस्तुतः धर्म है ही नहीं । (२०३) • जो धर्म वर्तमान क्षण में व्यक्ति को सुख और शांति की अनुभूति करा सके, वह जाग्रत धर्म है । (२०४) • व्यक्ति के जीवन में ज्यों-ज्यों त्याग और संयम के फूल खिलते हैं, त्यों-त्यों उसका जीवन सुख और शांति से महकने लगता है । (२०५) • संत जन त्याग और संयम के मूर्त रूप होते हैं, अध्यात्म के जीवंत प्रतीक होते हैं। (२०७) • आत्मदर्शन शांति से जीने का दर्शन है। (२०८) • धर्म को जीवन में अपनाने का अर्थ है- सत्य और अहिंसा को स्वीकार करना। मेरी दृष्टि में ये दोनों इतने व्यापक तत्त्व हैं कि धर्म के छोटे-बड़े समग्र सिद्धांत इनमें समाविष्ट हो जाते हैं। (२०९,२१०) साधना सजगता का ही दूसरा नाम है। साधक स्वयं सजगता का जीवन जीता है और जन-जन को सजगता का संदेश सुनाता है। (२११) प्रेरक वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only ३४९ ● www.jainelibrary.org

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