Book Title: Aage ki Sudhi Lei
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 355
________________ सकाम और अकाम के रूप में वह दो प्रकार की भी होती है। जो मात्र आत्म शुद्धि के लक्ष्य से तथा शुद्ध साधनों के द्वारा की जाती है, वह सकाम निर्जरा है । जिसमें इस लक्ष्य और साधन - शुद्धि की बात नहीं होती, वह अकाम निर्जरा है। यह दोनों प्रकार की निर्जरा सम्यक्त्वी एवं मिथ्यात्वी दोनों के होती है। - परमाणु - सूक्ष्मतम (अविभाज्य ) पुद्गल को परमाणु कहते हैं । पौद्गलिक वस्तु का सूक्ष्मतम (अविभाज्य) भाग, जब तक वह वस्तु के संलग्न रहता है, प्रदेश कहलाता है तथा वही जब अलग हो जाता है, तब परमाणु कहलाने लगता है । देखें- प्रदेश । परमाणु चाहे स्वतंत्र हो, चाहे स्कंध के संलग्न हो, वह सदा अपना अस्तित्व बनाए रखता है। लोक में अनंतानंत परमाणु अस्तित्व में हैं। उनकी संख्या सदा अचल रहती है। अर्थात न एक भी नया परमाणु उत्पन्न होता है और न एक भी विद्यमान परमाणु नष्ट होता है । केवल परमाणु के पर्याय बदलते हैं। परीषह - साधु-चर्या पालन करने के दौरान उत्पन्न होनेवाले कष्ट परीषह कहलाते हैं। वे बाईस प्रकार के होते हैं - १. क्षुधा २ पिपासा ३. शीत ४. उष्ण ५. मच्छर-दंश ६. अचेल ७. अरति-रति ८. स्त्री ९. चर्या १०. निषीधिका ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण-स्पर्श १८. मैल १९. सत्कार २०. प्रज्ञा २१. ज्ञान २२. दर्शन । इनमें से स्त्री और सत्कार- ये दो अनुकूल परीषह हैं। शेष बीस प्रतिकूल परीषह हैं। पुण्य-शुभरूप में उदय में आनेवाले कर्म - पुद्गल पुण्य हैं। पुण्योदय से जीव को भौतिक दृष्टि से शुभ की प्राप्ति होती है, किंतु उसका आध्यात्मिक शुभ से कोई संबंध नहीं है । मोक्षाराधना की दृष्टि से पुण्य उतना ही हेय है, जितना पाप । पाप की तरह वह भी बंधन ही है । पुण्य का बंधन शुभ योग के बिना नहीं हो सकता | शुभ योग से जहां एक ओर निर्जरा होती है, वहीं दूसरी ओर पुण्य का बंध होता है। साधक मात्र निर्जरा के लिए शुभ योग में प्रवृत्त हो, पुण्योपार्जन के लिए नहीं। ऊपर गुणस्थानों में पुण्य-बंध की स्थिति क्रमशः घटते घटते मात्र दो समय की आगे की सुधि इ • ३३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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