Book Title: Aage ki Sudhi Lei
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 354
________________ अनंत धर्मों के विषय में नहीं बता सकता, अतः वह एक धर्म को प्रमुखता देता है और अन्य धर्मों को गौण करता है। इसे जानकर ही हम उसका अभिप्राय समझ सकते हैं। स्याद्वाद की पद्धति में नय के आधार पर सत्य की व्याख्या की जाती है। नवकारसी - सूर्योदय के पश्चात एक मुहूर्त तक चारों प्रकार के आहार (अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य) का त्याग। देखें - मुहूर्त | यह तपस्या का सबसे छोटा प्रकार माना गया है। सामान्यतः रात्रिभोजन वर्जन के पश्चात ही यह तप किया जाता है। अर्थात रात्रि में चारों प्रकार के आहार के त्याग के उपरांत नवकारसी की जाती है। निकाचित कर्म - जो कर्म किसी पुरुषार्थ से परिवर्तित नहीं हो सकते, जिनमें उद्वर्तना, अपवर्तना आदि में से कोई भी 'करण' का प्रयोग संभव नहीं है, वे कर्म निकाचित कर्म कहलाते हैं। ऐसे कर्मों को भोगना एकमात्र विकल्प है। कर्मवाद की अवधारणा में परिवर्तन को मान्य किया गया है। जो कर्म निकाचित नहीं हैं, उन्हें पुरुषार्थ आदि के द्वारा बदला जा सकता है। पर कुछ कर्म ऐसे भी हैं, जिनमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। किचित कर्म हैं। जो निकाचित नहीं हैं, वे दलिक कर्म कहलाते हैं । साधना के द्वारा हम उन दलिक कर्मों में परिवर्तन कर सकते हैं, उनकी स्थिति का ह्रस्वीकरण किया जा सकता है, रस-विपाक का मंदीकरण किया जा सकता है। निकाचित कर्मों का बंधन तीव्र अध्यवसाय या परिणामों के कारण ही होता है। इसलिए इन्हें अपवाद रूप मानकर साधक शेष कर्मों की निर्जरा के लिए साधना का पुरुषार्थ करता रहे, यह अपेक्षित है। देखें - निर्जरा | निर्जरा • तपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने पर आत्मा की जो उज्ज्वलता होती है, उसे निर्जरा कहते हैं । • कारण को कार्य मानकर तपस्या को भी निर्जरा कहा गया है। उसके अनशन, ऊनोदरी आदि बारह भेद हैं। पारिभाषिक कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only ३३७० www.jainelibrary.org

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