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समस्त प्राणी छद्मस्थ हैं। छद्मस्थता केवलज्ञान की बाधक स्थिति है। इस बाधा के दूर होते ही प्राणी को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। देखें–केवलज्ञान, गुणस्थान ।
जातिस्मरण - देखें - जातिस्मृति ज्ञान ।
जातिस्मृति ज्ञान - यह मतिज्ञान का एक प्रकार है। इसके द्वारा प्राणी अपने
पूर्वजन्म या जन्मों का ज्ञान स्मृति के रूप में करता है। विशेष क्षयोपशम होने पर अथवा विशेष निमित्त मिलने पर भी जातिस्मृति ज्ञान हो सकता है। यहां जाति का अर्थ है - पूर्वजन्म |
तिर्यंच - एकेंद्रिय से चतुरिंद्रिय तक के सारे प्राणी तथा पशु-पक्षी आदि पंचेंद्रिय प्राणी तिर्यंच कहलाते हैं। शब्दांतर से देव, नारक और मनुष्य को छोड़कर शेष सभी प्राणी तिर्यंच हैं।
तीर्थंकर
धर्मचक्र प्रवर्तक |
• साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - इन चार तीर्थों के संस्थापक अथवा द्वादशांगी - प्रवचनरूप तीर्थ के कर्ता ।
• चार घनघाती कर्मों का क्षय करके जो केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि आत्मगुण प्राप्त कर लेते हैं तथा आठ प्रातिहार्य आदि विशिष्ट उपलब्धियों के धारक होते हैं, वे ही अर्हत, अरहंत, जिन या तीर्थंकर कहलाते हैं ।
• नमस्कार महामंत्र का प्रथम पद उनके लिए प्रयुक्त है। जीवन की समाप्ति पर वे सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं।
प्रत्येक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में भरतक्षेत्र तथा ऐरावत क्षेत्र में चौबीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं। यह 'चौबीसी' कहलाती है । देखें - अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी।
• भरतक्षेत्र में वर्तमान 'चौबीसी' के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ व अंतिम (चौबीसवें तीर्थंकर महावीर थे।
सजीव - हित की प्रवृत्ति एवं अहित की निवृत्ति के निमित्त जो प्राणी गमनागमन करने की अर्हता से संपन्न होते हैं, वे त्रस जीव हैं । द्वींद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के सभी जीव त्रस हैं। जो जीव स्थावर नहीं हैं, वे स जीव हैं। देखें - स्थावर जीव । त्रिशष्टिशलाकापुरुष - कुछ मनुष्य विशेष पुण्य प्रकृति के उदय के
पारिभाषिक कोश
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