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परिणामस्वरूप अपने-अपने युग के शलाकापुरुष के रूप में उत्पन्न होते हैं। इनमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रति वासुदेव-इस प्रकार तिरसठ शलाकापुरुष अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में होते हैं। देखें-अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी।
इनमें तीर्थंकर धर्म के क्षेत्र के तथा शेष लौकिक क्षेत्र के विशिष्ट/ मान्य पुरुष होते हैं। बलदेव वासुदेव के बड़े भाई होते हैं तथा प्रति वासुदेव का वध वासुदेव द्वारा किया जाता है।
चक्रवर्ती छह खंड के अधिपति, वासुदेव या प्रति वासुदेव तीन-तीन खंड अधिपति होते हैं। देश-वस्तु (द्रव्य) के बुद्धिकल्पित अंश को देश कहते हैं। यह अंश वस्तु
से अलग नहीं होता, किंतु उपयोगिता की दृष्टि से इसकी कल्पना की जाती है।
प्रत्येक अजीव अस्तिकाय (पुद्गल को छोड़कर) के स्कंध, देश और प्रदेश-ये तीन भेद होते हैं। पुद्गलास्तिकाय के स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु-ये चार भेद होते हैं।
देखें स्कंध, प्रदेश, पुद्गल, परमाणु। ध्यान-एकाग्र चिंतन अथवा योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) के निरोध को ध्यान कहते हैं। उसके चार प्रकार हैं-१. आर्त २. रौद्र ३. धर्म्य ४. शुक्ल। इनमें से प्रथम दो प्रकार-आर्त और रौद्र अशुभ हैं-कर्म-बंधन के हेतु हैं। इनमें से एकाग्र चिंतन की स्थिति बनती है, मात्र इस अपेक्षा से ये ध्यान मान लिए गए हैं। चूंकि ये व्यक्ति के चैतन्य-विकास में सहायक नहीं बनते, इसलिए ये दोनों तप की कोटि में नहीं हैं। धर्म्य और शुक्ल शुभ हैं; इन्हें तप माना गया है।
अध्यात्म-साधना में उपवास आदि बाह्य तप की अपेक्षा ध्यान आदि आभ्यंतर तप को अधिक महत्त्व दिया गया है। नय-हर वस्तु तत्त्वतः अनंतधर्मात्मक होती है। वस्तु के विवक्षित धर्म का
संग्रहण और अन्य धर्मों का खंडन न करनेवाले विचार को नय कहा जाता है। सत्य की मीमांसा में ज्ञाता या वक्ता का दृष्टिकोण या नय जानना आवश्यक है। जिस दृष्टिकोण से विवक्षा की जाती है, उसके अनुसार ही वक्ता के कथन का तात्पर्यार्थ समझा जा सकता है। चूकि वक्ता एक साथ
- आगे की सुधि लेइ
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