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१. एकांत दुःखमय २. दुःखमय ३. दुःख-सुखमय ४. सुख-दुःखमय
५. सुखमय ६. एकांत सुखमय। देखें-अवसर्पिणी। कायोत्सर्ग-कायचेष्टा और कायासक्ति छोड़ना। तपस्या के बारह भेदों में
अंतिम भेद है-व्युत्सर्ग। इसमें शरीर, कषाय आदि के परित्याग की साधना की जाती है। षड् आवश्यक में पांचवें आवश्यक का नाम भी कायोत्सर्ग है। जैन-साधना-पद्धति में इसे भेद विज्ञान की हेतुभूत प्रक्रिया के रूप में बहुत महत्त्व दिया गया है। आधुनिक दृष्टि से यह शरीर के शिथिलीकरण और
चेतना के जागरण का अभ्यास है। केवलज्ञान-आत्मा द्वारा जगत के समस्त मूर्त एवं अमूर्त तथा उनकी
त्रैकालिक सभी पर्यायों का प्रत्यक्ष बोध केवलज्ञान है। इसमें इंद्रियों और मन की कोई अपेक्षा नहीं रहती। आत्मा पर आए ज्ञानवरण कर्म के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। यह तेरहवें व चवदहवें गुणस्थान में तथा सिद्धों में होता है। देखें-गुणस्थान। केवली-केवलज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति। देखें-केवलज्ञान। गणधर-तीर्थ-स्थापना के प्रारंभ में होनेवाले तीर्थंकर के विद्वान शिष्य, जो
उनकी वाणी का संग्रहण कर उसे अंग-आगम के रूप में गुंफित करते हैं।
देखें-अंग, आगम, तीर्थंकर। गुणस्थान-कर्म-विशुद्धि की तरतमता के अनुरूप प्राणी के उत्तरोत्तर
आध्यात्मिक विकास की विभिन्न भूमिकाएं/स्तर गुणस्थान हैं। इन्हें जीवस्थान भी कहा जाता है। गुणस्थान चौदह हैं-१. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादनसम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४. अविरतसम्यग्दृष्टि ५. देशविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्त-संयत ८. निवृत्तिबादर ९. अनिवृत्तिबादर १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशांतमोह १२. क्षीणमोह
१३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकवली।। गुप्ति-मन, वचन और काया के संवरण को गुप्ति कहा जाता है। मनोगुप्ति,
वचनगुप्ति और कायगुप्ति-ये उसके तीन प्रकार हैं। आठ प्रवचन-माताओं में पांच समितियों और तीन गुप्तियों का समावेश किया गया है, जो कि
पांच महाव्रतों के साथ साधु के लिए अवश्य पालनीय हैं। देखें-समिति। छद्मस्थ, छद्मस्थता-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय को छद्म कहते हैं। छदम
का अर्थ है-अज्ञान या केवलज्ञान का अभाव। इस अवस्था में रहनेवाले प्राणी छद्मस्थ कहलाते हैं। प्रथम गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के
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