Book Title: Aage ki Sudhi Lei
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 349
________________ अक्रियावस्था - देखें - शैलेषी अवस्था । अघाती कर्म- जो कर्म आत्मा के मूल गुण- ज्ञान - दर्शन आदि का घात नहीं करते, वे अघाती कर्म हैं। वे चार हैं - १. वेदनीय २. आयुष्य ३. नाम ४. गोत्र । पारिभाषिक कोश अध्यवसाय - चेतना का एक अतिसूक्ष्म स्तर । अनशन - अन्न, पानी, खाद्य (मेवा आदि) और स्वाद्य ( लवंग आदि ) - इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है। वह दो प्रकार का होता है - इत्वरिक और यावत्कथिक । उपवास से लेकर छह मास तक का अनशन इत्वरिक है। आमरण अनशन को यावत्कथिक कहा जाता है । अनशन के तीन भेद भी हैं - १. भक्तप्रत्याख्यान २. इंगिनीमरण ३. प्रायोपगमन। ये उत्तरोत्तर कठिन हैं। साधु या श्रावक जीवन के अंत काल में अनशनपूर्वक देह त्याग करके समाधिमरण को प्राप्त होता है। इसे 'संथारा' की संज्ञा दी गई है। यह आत्म-हत्या नहीं, अपितु आत्म-साधना का उत्कृष्ट उदाहरण है। अनार्यक्षेत्र - मनुष्यक्षेत्र का वह हिस्सा, जहां लोगों का जीवन असभ्य और अशिष्ट होता है तथा अर्हत द्वारा प्रदत्त उपदेश के श्रवण का लाभ प्राप्त करने की सुविधा नहीं होती । देखें- आर्यक्षेत्र । अप्रमत्त-संयमी साधक की वह अवस्था, जिसमें वह अध्यात्मलीन बन जाता है, अपने आत्म-स्वभाव के प्रति संपूर्ण जागरूक हो जाता है। इस अवस्था में तीन आश्रवों-मिथ्यात्व, अव्रत और प्रमाद का निरोध हो जाता है। यह स्थिति सातवें गुणस्थान में प्राप्त होती है । देखें - गुणस्थान । अयोगी - देखें - शैलेषी अवस्था । अवसर्पिणी- ह्रास-काल- कालचक्र का वह अर्धांश, जिसमें क्रमशः सुख आगे की सुधि इ • ३३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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