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मुफ्त में भी पिलाते हैं। इन सब बातों से शराब पीने की प्रवृत्ति को प्रश्रय मिलता है; और शराब के नशे में धुत होकर जरा-जरा-सी बात में हत्या करना तो सामान्य-सी बात है। इसमें हथियारों का भी पूरा योग मिलता है। पर जड़ में है-शराब। मैंने सरकारी अफसरों से बातचीत की। उन्होंने बताया कि शराब के इन ठेकों से राजस्थान सरकार को आठ करोड़ रुपयों की आय होती है। ऐसी स्थिति में इसे बंद नहीं किया जा सकता।
'आठ करोड़ रुपयों की आय होती है' इस तर्क के आधार पर शराब को चालू रखने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। मैं नहीं समझता कि ऐसी आय किस काम की, जो जनता का चरित्र गिराए, अनेक प्रकार की बुराइयों को प्रोत्साहित करे। खैर, इस संबंध में सोचना और निर्णय करना सरकार का काम है। मैं उस पर दबाव नहीं डाल सकता, मात्र उसे अपने दृष्टिकोण से परिचित ही करा सकता हूं, बुराई को प्रोत्साहन न देने की प्रेरणा ही दे सकता हूं। जरूरी है जन-चेतना का जागरण
जहां तक कानूनन शराबबंदी की बात है, इस संदर्भ में मेरे विचार बहुत स्पष्ट हैं। कानून से शराब की प्रवृत्ति पर एक सीमा तक अंकुश तो लग सकता है और इस दृष्टि से उसका सामाजिक उपयोग भी है, पर इस दुर्व्यसन को समाप्तप्रायः करने के लिए तो जन-चेतना जगाना आवश्यक है। एक तरफ समुचित और प्रभावी व्यवस्था और दूसरी तरफ हृदय-परिवर्तन के स्तर पर जन-चेतना-जागरण का कार्य-ये दोनों बातें साथ-साथ चलें तो इस दुष्प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकता है।
जैसाकि मैंने कहा, सरकार को इस संदर्भ में कुछ करने की बात उसे ही सोचनी होगी। वह कदाचित सोच भी सकती है और नहीं भी सोच सकती। इसलिए उसकी बात हम उस पर ही छोड़ते हैं। हम अपनी बात सोचें। इस बुराई के दुष्परिणामों के प्रति जन-चेतना जगाने का काम हम साधु-संतों का है। यह काम हम अनवरत कर रहे हैं। इस कार्य से यदि किसी ठेकेदार का ठेका बंद होता है या उसे नुकसान होता है तो उसके लिए हम किंचित भी जिम्मेदार नहीं हैं। किसी की रोजी-रोटी की व्यवस्था समाप्त करना हमारा उद्देश्य कदापि नहीं है। हमारा उद्देश्य तो बुराई समाप्त करना है। बुराई के प्रतिकार का यह काम साधु-संत सदा से करते आए हैं। यह कर्तव्य निभाने में उनकी समता की साधना किंचित भी खंडित नहीं
आगे की सुधि लेइ
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