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५४ : संघ का गौरव
मैंने एक पद्य कहा है
सचमुच हम कितने सौभागी सदा त्रिवेणी नहाएं। मानव जीवन, जैन धर्म और भैक्षव शासन पाएं।
हम वह आदर्श दिखाएं।। इस पद्य का एक इतिहास है। यह पद्य मैंने तब कहा था, जब हमारे तेरापंथ धर्मसंघ में एक जबरदस्त संघर्ष का वातावरण निर्मित हो गया था। उस समय हजारों-हजारों लोगों के मन सशंकित हो उठे थे कि अब क्या होगा, लेकिन संघ की अक्षुण्णता के प्रति मेरी आश्वस्ति में कहीं कोई कमी नहीं आई। इसका मेरे पास एक आधार था। मैं जानता था कि हमारे धर्मसंघ की नींव मजबूत है, हमारी निष्ठा दृढ़ है, चिंतन स्वस्थ है, कार्यक्रमों का उद्देश्य सही है और पूर्वाचार्यों की नीति-रीति के आधार पर जो कार्य किया जाता है, वह कभी निष्फल नहीं होता। सचमुच मेरे मन के इस बल ने ही मुझे उस भूचाल में दृढ़ रखा। मैंने कहा-'लोग त्रिवेणी में स्नान करने के लिए जाते हैं और हमें घर बैठे त्रिवेणी मिली है-मनुष्य जीवन, सत्य धर्म और उदितोदित तेरापंथ संघ। यह त्रिवेणी पाकर कौन अपने-आपको गौरवशाली महसूस नहीं करता होगा?' मैं सदा से अपनेआपको गौरवशाली महसूस करता रहा हूं। उस दिन भी किया था और आज भी कर रहा हूं। आप भी इस त्रिवेणी को पाकर अपने-आपको गौरवशाली महसूस करते होंगे, करना ही चाहिए। साधना के दो पक्ष
तेरापंथ धर्मसंघ एक सततविकासी धर्मसंघ है। मैं मानता हूं, किसी संघ के विकास के लिए आचार और प्रचार-दो आवश्यक तत्त्व हैं। आचार आत्मशुद्धि का साधन है, पर जहां जनकल्याण का कार्य करना है, वहां प्रचार भी आवश्यक हो जाता है। इसलिए दोनों ही पक्ष मजबूत करने की संघ का गौरव
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