Book Title: Aage ki Sudhi Lei
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 331
________________ अपेक्षा है। हम महाव्रतों की साधना करते हैं, यह आचार है । उपदेश देते हैं, व्याख्यान करते हैं"यह प्रचार है । प्रचार से जनता को प्रेरणा मिलती है । हमारा काम है कि हम स्वयं साधना करें और जनता को सत्पथ पर चलने की प्रेरणा दें। तीर्थंकर प्रवचन क्यों करते हैं सूत्रकृतांग सूत्र में तीर्थंकर महावीर के प्रवचन करने के संदर्भ में एक सुंदर प्रसंग आया है। वहां बताया गया है -सकामकिच्चेणिह आरियाणं । यानी स्वयं की निर्जरा तथा आर्य लोगों के मार्गदर्शन के लिए तीर्थंकर प्रवचन करते हैं। यह बहुत गहरी बात है। गोशालक और आर्द्रकुमार के चर्चा-प्रसंग में यह बात कही गई है। आर्द्रकुमार ने कभी साधु-संतों की संगत नहीं की, उनका उपदेश नहीं सुना, पर जाति - स्मृति ज्ञान होने से वह अनायास विरक्त हो गया । विरक्त होकर वह साधु बना और भगवान महावीर के दर्शन करने के लिए चल पड़ा। रास्ते में गोशालक की उससे भेंट हो गई। गोशालक ने पूछा- 'कहां जा रहे हो ?' आर्द्रकुमार बोला- 'भगवान महावीर के पास । ' गोशालक ने प्रश्न किया- 'क्यों ?' आर्द्रकुमार ने कहा- 'मैं उनका शिष्य हूं।' गोशालक बोला- 'मैं जाने के लिए तुम्हें मना तो नहीं करता, पर एक रहस्य की बात अवश्य बताना चाहता हूं। महावीर के बारे में मैं जितना जानता हूं, उतना कोई नहीं जानता, क्योंकि मैं उनका शिष्य रह चुका हूं।' आर्द्रकुमार ने पूछा-'रहस्य क्या है ?' गोशालक बोला- 'महावीरजी दुरंगे व्यक्ति हैं। वे भीतर और बाहर से एक नहीं हैं। जब वे मेरे गुरु थे, तब तपस्या करते थे, मौन रहते थे, लेकिन आजकल वे दिन भर बोलते हैं, भोजन करते हैं और लाखों व्यक्तियों से घिरे रहते हैं।' आर्द्रकुमार बोला- 'भगवान पहले नहीं बोलते थे, यह भी उनकी साधना थी और आज बोलते हैं, यह भी उनकी साधना है। पहले वे नहीं बोलते थे साध्य पाने के लिए और अब वे बोलते हैं आत्म-निर्जरा तथा जनता को प्रतिबोध देने के लिए।' - हम यह बात समझें कि तीर्थंकर के भी चार अघाती कर्म मौजूद रहते हैं। उनका क्षय करना उनके लिए भी शेष रहता है। इसके साथ-साथ ही जो आर्य लोग सही मार्ग पर चलना चाहते हैं, उनका पथ-दर्शन करना भी उनके लिए आवश्यक है । इस प्रसंग से यह बहुत स्पष्ट है कि जन-उद्बोधन भी साधु आगे की सुधि इ • ३१४ Jain Education International -" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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