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साध्वियों के साधना-जीवन का एक अनिवार्य अंग है। इसे हम उपेक्षित नहीं कर सकते। संप्रदाय व्यापकता में बाधक नहीं
साधना के संदर्भ में एक बात समझ लेने की है। हालांकि साधना किसी संप्रदायविशेष में बांधी नहीं जा सकती, वह हर-किसी संप्रदाय में की जा सकती है, हर-किसी वेशभूषा और देश में हो सकती है, तथापि अति व्यापकता भी कोई काम का तत्त्व नहीं है। व्यक्ति को किसी-न-किसी वेश में तो रहना ही होगा। कहीं-न-कहीं तो अपने पैर जमाने ही होंगे। हां, उसका दृष्टिकोण संकीर्ण न हो।
श्रीगंगानगर में प्रिंसिपल रमा कोचर ने मेरे सामने एक प्रश्न रखा-'आप अणुव्रत का कार्यक्रम चलाते हैं, मानवधर्म की बात करते हैं, फिर यह जैन-मुनि की वेशभूषा क्यों रखते हैं ?' मैंने कहा-'एक भारतीय विश्वहित की कामना से काम करता है। वह विदेशों में जाता है, लेकिन उसकी भाषा और वेश-भूषा यदि भारतीय है तो क्या वे उसके काम में बाधक बन सकेंगी? मैं मानव-धर्म की बात करता हूं, पर जैन-धर्म के सिद्धांतों के प्रति मेरा आकर्षण है। यह आकर्षण मानव-धर्म के खिलाफ नहीं है। फिर क्या आवश्यक है कि मैं जैन-संस्कार छोड़ दूं?'
वस्तुतः संप्रदाय अपने-आपमें कोई अनुपयोगी तत्त्व नहीं है, बल्कि साधना में बहत सहयोगी है। खुले आकाश में व्यक्ति कैसे रहेगा? रहने के लिए कहीं-न-कहीं तो उसे छत बनानी ही होगी। साधना करना है तो उसे किसी-न-किसी परंपरा से जुड़ना ही होगा। इसलिए संप्रदाय बुरा नहीं है, बुरी है सांप्रदायिकता। जहां व्यक्ति का दृष्टिकोण सांप्रदायिक बन जाता है, वहां वह सारी साधना को अपने संप्रदाय की सीमा में कैद करना चाहता है। उससे बाहर वह उसे देखता ही नहीं। यह संकीर्ण मनोवृत्ति ही संप्रदायसंप्रदाय में वैमनस्य और संघर्ष का कारण बनती है। जहां व्यक्ति यह मानता है कि मेरे घर में आकाश है, पड़ोसी के घर में भी आकाश है, वहां कोई कठिनाई की बात नहीं है, पर जहां व्यक्ति यह मान लेता है कि सारा आकाश मेरे ही घर में समा गया है, वहां अनेक प्रकार की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। साधना या धर्म आकाश की तरह व्यापक तत्त्व है। उसे किसी संप्रदायविशेष की चारदीवारी में चाहकर भी बांधा नहीं जा सकता। इसलिए कहीं भी रहकर व्यक्ति साधना कर सकता है। एक संप्रदायविशेष
संघ का गौरव
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