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पैदा नहीं हो सकती। मैं देखता हूं, बहुत-से व्यक्ति कोई नया कार्य शुरू करते हैं और दो-चार वर्षों में निराश हो जाते हैं। इसका कारण ? कारण यही है कि वे अपनी कल्पना के अनुरूप जन-समर्थन प्राप्त नहीं करते। उन्हें अपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं देता। इसके विपरीत स्वधर्म मानकर कार्य करनेवाला हर स्थिति में प्रसन्न रहता है, संतुष्ट रहता है। इसलिए हम स्वधर्म मानकर काम करें, यही श्रेय-पथ है, यही साधना है। वैर : भयंकर बीमारी
मैत्री भी हमारी विशेष साधना है। मैत्री में सबसे पहली बात है-वैरत्याग। वैर-विरोध नहीं मिटता है तो हजार तरह की तपस्या करने के बावजूद कल्याण नहीं होता। साधु साधक है। साधना-काल में उससे गलती हो सकती है। कदाचित दो साधकों में बोलचाल हो जाए तो तत्काल खमतखामणा करने का विधान है। खमतखामणा किए बिना भोजन और उत्सर्ग करने की भी आज्ञा नहीं है। क्यों? यह इसीलिए की कलह/ वैर एक भयंकर बीमारी है। इसका उपचार न होने से बहुत बड़ा नुकसान हो जाता है। मैत्री समता की निष्पत्ति है
आगमों में लिखा है-उवसमसारं खु सामण्णं। यानी साधना का सार उपशम है। उपशम भाव न हो तो साधना निष्फल हो जाती है। इसलिए समता का विकास करना आवश्यक है। समता की निष्पत्ति है-मैत्री। साधक को अपने स्व की सीमा इतनी विस्तृत बना लेनी चाहिए कि उसमें जगत के समस्त प्राणी समा जाएं। कोई उस क्षेत्र से बाहर न रहे।
बंधुओ! यदि गहराई से देखा जाए तो मैत्री आत्मोदय का एकमात्र मार्ग है। इसका विकास करने के लिए दूसरों की भूलें भूलना आवश्यक है, स्वयं की भूलों का परिमार्जन करना जरूरी है। यह वैर का गट्ठर जिसके सिर पर रहता है, वह रात-दिन इसके भार से दबा रहता है। इसे उतारने से ही दिमाग हलका होता है, मन स्वस्थ होता है। इसलिए राग और मैत्री का अंतर समझकर मैत्री का विकास करना जरूरी है। ध्यान रहे, मैत्री का विकास ही शांति का वास्तविक आधार है। रायसिंहनगर २ मई १९६६
मैत्री और राग
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