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४८ : महाव्रत से पूर्व अणुव्रत
अहिंसा परमो धर्मः
अहिंसा परमो धर्मः | अहिंसा को परम धर्म माना गया है। क्यों ? यह 'इसलिए कि यह जीवन की पवित्रता का मौलिक आधार है। जो व्यक्ति अहिंसा की साधना करता है, उसका जीवन निस्संदेह पवित्र बनता है । न केवल वर्तमान जीवन, अपितु अतीत और अनागत भी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अहिंसा सबसे बड़ा मंगल है, भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग है । मैंने एक पद्य में कहा है
सब जग क्षेमंकरी अहिंसा, भव समुद्र बिच तरी अहिंसा । भ्रातृभाव की दरी अहिंसा, अपना हृदय
रमाना ॥
मानव
अपनाना ॥
अपनाना
अपनाना ।
एक सब धर्मों का
सत्त्व
अपनाना ॥
इस पद्य में कहा गया है कि अहिंसा सारे जग के लिए कल्याण का पथ है, संसार-समुद्र को पार करने के लिए नौका है, भ्रातृत्व की दरी है। ऐसी दरी है कि जिस पर हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध "हरिजन महाजन, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष "सभी प्रेम से बैठ सकते हैं। इसी लिए सभी धर्मों ने इसे महत्त्व दिया है। जैन धर्म की तो यह शान ही है, पहचान ही है। जो भी व्यक्ति इसकी महत्ता से परिचित होना चाहता है, लाभान्वित होना चाहता है, वह इसे जीवन में उतारकर देखे । संतजनों की महत्ता क्यों
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तत्त्व
अहिंसा
अहिंसा
संतजन अहिंसा के प्रतीक होते हैं, प्रेरणा होते हैं। उनका संपूर्ण जीवन ही अहिंसामय होता है, पर अहिंसा का अर्थ मात्र किसी जीव को न मारना नहीं है। इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है । असत्प्रवृत्तिमात्र से बचना इसके अंतर्गत आ जाता है। इसलिए पूर्ण अहिंसक बनने के लिए सभी
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आगे की सुधि लेइ
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