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शांति से जीने का दर्शन है। आज मनुष्य अशांत है, इसका बहुत बड़ा कारण यही तो है कि वह आत्मदर्शन की बात को भूलता जा रहा है। उसके स्थान पर वह परदर्शन में रस ले रहा है। स्वयं के हजार दोष भी वह नजरअंदाज करता है और परदोषदर्शन के लिए सहस्राक्ष बन जाता है। घर में क्या हो रहा है, इसकी उसे खबर नहीं पड़ती, पर पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, इस पर उसकी खूब नजर रहती है। मैं मानता हूं, जब तक इस वृत्ति में परिवर्तन नहीं आता, तब तक व्यक्ति सुख-सुविधाओं के हजार साधन जुटाकर भी शांति से नहीं जी सकता। इसलिए अपेक्षा है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सही बने। वह परदर्शन छोड़कर आत्म-दर्शन पर अपना ध्यान केंद्रित करे। सम्यक दृष्टिकोण का मूल्य
__आप यह बात समझने का प्रयास करें कि दृष्टिकोण सही होना कितना आवश्यक है, मिथ्या दृष्टिकोण छूटना कितना जरूरी है। जब तक व्यक्ति के सोचने-समझने का ढंग सही नहीं होता, गलत दृष्टिकोण के लंगर से जीवन-नौका नहीं खोली जाती, तब तक तपस्या-साधना के रूप में कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाए, उसकी नौका भव-सागर के पार नहीं पहुंच सकती। मिथ्या दृष्टिकोण के लंगर से जीवन-नौका खोलने के बाद ही उसका प्रयत्न उसे भवसिंधु के. पार ले जा सकता है। जो लोग तपस्यासाधना तो करते हैं, पर इस दृष्टि से ध्यान नहीं देते, उनका पुरुषार्थ एक अपेक्षा से सार्थक नहीं होता, निरर्थक ही चला जाता है।
संध्या का समय था। चार-पांच नाविक अपने गांव के नदी-तट से उस पार के गांव के लिए रवाना हुए। पूरी रात उन्होंने बारी-बारी से नौका खेई। प्रातः पौ फटते-फटते वे किनारे पहुंचकर नौका से उतरे। वहां उनमें से एक नाविक ने देखा कि मेरी पत्नी नदी से पानी भर रही है। देखते ही वह गुस्से से लाल हो गया। अपनी पत्नी को दुर्लक्षणा मानकर अंट-संट बोलने लगा।
नाविक-पत्नी ने शांति से समझाया-'यह तो अपना ही गांव है। यहां तो मैं रोज ही जल भरने के लिए आती हूं।' नाविक बोला- 'अपना गांव तो हमने कल शाम को ही छोड़ दिया था। रात-भर हम नौका खेते रहे, चलते रहे। फिर यह अपना गांव कैसे हो सकता है ?' पत्नी बोली-'आपने शायद सपना देखा होगा। सपने में ही आपने नौका खेई होगी, अन्यथा
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