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भोजन में तीव्र आसक्ति रखनेवाले व्यक्ति को अगले जन्म में जीभ नहीं मिलती।
___ एक व्यक्ति तीव्र आवेश में आकर किसी को गाली दे देता है, पर संभलने के बाद बहुत अनुताप करता है। इस स्थिति में उसके प्रगाढ़ बंधन नहीं होता, लेकिन जो व्यक्ति गाली देने में भी आनंद का अनुभव करता है, उसके तीव्र बंधन होता है और उस बंधन से वह मूक तक बन सकता है। इसी प्रकार हर क्रिया के साथ आसक्ति और अनासक्ति से बंधन में अंतर पड़ता है। शिथिल बंधन साधना/तपस्या से टूट जाता है और गाढ़ बंधन भोगना पड़ता है।
कृत कर्मों का फल भोगने के संदर्भ में भी एक बात ध्यान देने की है। फल भोगते समय व्यक्ति को घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि फल भोगने का अर्थ है-ऋण से मुक्त होना। इसलिए किसी ने कहा है-मूक होहि वाचाल। अर्थात जिस पाप से प्राणी मूक हो जाता है, उस पाप का फल भोग लेने के बाद उसे बोलना आ जाता है।
प्रसंगवश मैंने कर्म-बंधन और कर्म-भोग की बात स्पष्ट की। अब पुनः मैं ज्ञान की बात पर आता हूं। ज्ञानीजनों से सुनकर लोग ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर बड़ी कठिनाई है कि बहुत-से व्यक्ति किसी को सुनते ही नहीं। ऐसी स्थिति में उन्हें ज्ञान भी नहीं होता; और जब ज्ञान नहीं होता, तब वे अज्ञान का दुष्परिणाम भुगतते रहते हैं। उनकी जिंदगी उनके स्वयं के लिए भारभूत बन जाती है। इसी लिए हमारे तीर्थंकरों ने श्रवण पर बहुत बल दिया है। जरूरी है संग्रह और व्युत्सर्ग
सुनने से जब अच्छे और बुरे का विवेक हो जाए, तब अच्छे का स्वीकरण और बुरे का परिहार जरूरी है। मैं मानता हूं, यह संग्रह और व्युत्सर्ग का सूत्र न केवल अध्यात्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य की अपेक्षा से भी बहुत मूल्यवान है। जब तक हमारा शरीर है, तब तक संग्रह और व्युत्सर्ग का क्रम चलता रहता है। हम लोग खाने-पीने के रूप में जो कुछ ग्रहण करते हैं, वह सब सारभूत ही नहीं होता। उसमें निस्सार भी होता है। उसका मल-मूत्र के रूप में उत्सर्ग करना जरूरी होता है। खाए-पिए बिना तो फिर भी एक-दो दिन आराम से काम चल सकता है, पर उत्सर्ग के बिना हालत खराब हो जाती है। इसलिए .२४२ -
- आगे की सुधि लेइ
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