Book Title: Aage ki Sudhi Lei
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 289
________________ उनका निदेश/उपदेश/संदेश सुनकर सही मार्ग पकड़ा है, वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हुए हैं और उन्होंने शांति की अनुभूति की है। सही मार्ग पकड़ने का अर्थ है-आत्म-धर्म-स्वधर्म में अवस्थित होना, त्याग का जीवन स्वीकार करना। स्वधर्मे निधनं श्रेयः गीता में लिखा है-स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। ये श्लोक के दो चरण हैं। इनका अर्थ है-अपने धर्म में मरना श्रेयस्कर है, परधर्म भयावह है। आपका प्रश्न हो सकता है कि यह स्वधर्म क्या है। श्लोक के प्रथम दो चरण सामने रखकर जब हम शेष दोनों चरण देखते हैं तो यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि यहां स्वधर्म का अर्थ है-अपना कर्तव्य। मूलतः यह वर्णव्यवस्था का समर्थक और पोषक श्लोक है। ग्रंथकार कहते हैं कि जो व्यक्ति जिस वर्ण में है, वह उस वर्ण के कर्म में ही रहे। उसके लिए स्ववर्ण का कर्म ही स्वधर्म है। इस स्वधर्म में रहते हुए ही मौत को प्राप्त करना उसके लिए श्रेयस्कर है। अन्य किसी वर्ण का धर्म यानी कर्म अपनाना उसके लिए भयावह है, अहितकर है। हालांकि जैन-धर्म इस वर्ण-व्यवस्था को मान्य नहीं करता और आज तो यह व्यवस्था यों भी छिन्न-भिन्न हो गई है, तथापि ग्रंथकार का अपना अभिमत है, अपना विचार है। हर-किसी को अपना स्वतंत्र विचार रखने का अधिकार है, ग्रंथकार को भी है। इसलिए असहमति के बावजूद हम श्लोक के ये दोनों चरण उनकी भावना के प्रतिकूल मनमाने ढंग से व्याख्यायित नहीं कर सकते। परंतु जहां हम इस संदर्भ से हटकर इन दोनों चरणों को एक स्वतंत्र सूक्त के रूप में व्यवहृत करते हैं, वहां स्वधर्म का अर्थ आत्मधर्म यानी त्याग कर सकते हैं। जो प्राणी सुख-शांति का जीवन जीना चाहता है, उसके लिए यह त्याग/भोग-विरति ही श्रेयस्कर है। स्त्री और संन्यास ___कुछ लोग कहते हैं कि स्त्री को संन्यास की दीक्षा नहीं देनी चाहिए, क्योंकि लड़की को ब्रह्मचारिणी रखना धर्मशास्त्रों के विरुद्ध है, लेकिन मैं मानता हूं कि ऐसा कहनेवाले लोगों ने धर्मशास्त्रों को पूरा पढ़ा नहीं है, लोकशास्त्रों को पूरा समझा नहीं है, अन्यथा वे किसी स्थिति में ऐसा कहने का साहस नहीं करते। क्या वे नहीं जानते कि समस्त आत्माएं • २७२ - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370