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देखते हैं कि इस चाह के बावजूद ज्यादातर प्राणियों को सुख नहीं मिलता। वे पुनः-पुनः दुःख का वेदन करते हैं। इसका कारण यही तो है कि वे मार्ग सही नहीं लेते। वे अनुस्रोत में चलते हैं, धन में सुख खोजते हैं, पर धन कभी किसी के सुख का आधार नहीं बन सकता, किसी का त्राण नहीं बन सकता। आगम की यह वाणी इसी सचाई को प्रकट करती है-वित्तण ताणं न लभे पमत्ते। वस्तुतः सुख उन्होंने ही पाया है, जिन्होंने अकिंचनता स्वीकार की है, संतोष का जीवन जिया है। राजर्षि भर्तृहरि की अनुभवपूरित वाणी देखें
ये संतोषसुखप्रमोदमुदितास्तेषां न भिन्ना मुदो, ये त्वन्ये धनलोभसंकुलधियस्तेषां न तृष्णा हता। इत्थं कस्य कृते कृतः सविधिना तादृक् पदं संपदां, स्वात्मन्येव समाप्तहेममहिमा मेरुर्न मे रोचते॥ - सोने का मेरु भी संतोषी व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकता,
क्योंकि वह अपने संतोष में ही प्रसन्नता का अनुभव करता है। इसके विपरीत लोभी व्यक्ति उसे प्राप्त करके भी तृप्त नहीं हो
सकता । इसलिए मुझे यह मेरु (धन) अच्छा नहीं लगता।
पर आश्चर्य, संतों की अनुभूत वाणी सुनकर भी सांसारिक प्राणी का दृष्टिकोण नहीं बदलता, धन के प्रति उसका आकर्षण नहीं टूटता! आप कहेंगे कि धन के बिना जीवन कैसे चल सकता है। ठीक है, धन जीवन चलाने के लिए आवश्यक है, पर वह मात्र जीवन के लिए सुविधा के साधन जुटा सकता है। सुख की अनभूति कराना उसके वश की बात नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है। धन शरीर के स्तर पर सुविधा प्रदान करता है, जबकि सुख का संबंध हमारी आत्मा से है। आत्मा को न भोजन चाहिए, न पानी, न ऐश और न आराम ही। वह तो अपने-आपमें सुखमय ही है, आनंदमय ही है। बस, उसकी अनुभूति की अपेक्षा है। वह अनुभूति तब होती है, जब व्यक्ति त्याग–अकिंचनता का पथ स्वीकार कर लेता है। इसलिए सुखेच्छु हर भाई-बहिन को चाहिए कि वह भोग/धन के पीछे मृग की तरह दौड़े नहीं। वह चिंतनपूर्वक सही मार्ग पकड़े। सही मार्ग पर बढ़नेवाला निश्चय ही एक दिन अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। लक्ष्य भले कितना ही दूर क्यों न हो, वह उसकी सफलता में बाधक-कारण नहीं बनता। संत-जन सही मार्ग का निर्देश बार-बार करते हैं। जिन्होंने भी शांति-सुख का मार्ग त्याग
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