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४३ : शांति-सुख का मार्ग-त्याग*
अनुस्रोत: प्रतिस्रोत
कहा गया हैसुविहियाणं । उत्तारो॥
अनुस्रोत और प्रतिस्रोत- ये दो स्थितियां हैं। अनुस्रोत का अर्थ है - प्रवाह के साथ चलना । प्रतिस्रोत का अर्थ है- प्रवाह के विपरीत गति करना। प्रवाह जिस ओर होता है, उधर चलने में नाविक और नौका को कठिनाई नहीं होती। इसके विपरीत जब प्रवाह को चीरकर चलना होता है, तब यात्रा बहुत कठिन होती है । दशवैकालिक सूत्र में अणुसोयसुहोलोगो, पडिसोओ आसवो अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स संसार अनुस्रोत में सुख देखता है, जबकि अस्रोत में दुःख देखता है। वह प्रतिस्रोत में सुख का अनुभव करता है। आप देखें, नदी के अनुस्रोत में चलता चलता व्यक्ति जहां समुद्र में गिर पड़ता है और अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है, वहीं प्रतिस्रोत में चलनेवाला किनारे पर पहुंच जाता है। प्रकारांतर से हम ऐसा कह सकते हैं कि अनुस्रोत अनंत जन्म-मृत्यु का घुमाव है, जबकि प्रतिस्रोत निर्वाण है, मुक्ति है।
पहुंचा हुआ व्यक्ति
भोग अनुस्रोत का मार्ग है और त्याग प्रतिस्रोत का । संसार के अधिकतर प्राणी अनुस्रोतगामी हैं, इसलिए उन्हें भोग अच्छा लगता है, त्याग अच्छा नहीं लगता । पर साधु-संत प्रतिस्रोतगामी होते हैं, इसलिए वे त्याग का जीवन जीते हैं और उसमें अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करते हैं । भोग उन्हें हलाहल के समान कटुकपरिणामी दिखाई देता है । इसलिए वे उससे उपरत हो जाते हैं।
धन और सुख
यह शाश्वत तथ्य है कि संसार के सभी प्राणी सुखेच्छु हैं, पर हम
* दीक्षा समारोह में प्रदत्त प्रवचन ।
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