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है। जिस प्रकार छोटी-बड़ी नदियां समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी प्रकार के विचार, विभिन्न दर्शन इस एक दर्शन में समाहित हो जाते हैं। इससे आगे चलूं तो अनेकांत सत्य की यात्रा है। अनेकांत को स्वीकार किए बिना व्यक्ति सत्य को प्राप्त नहीं हो सकता। आप जानते हैं, एक वस्तु को देखने के अनेक पहलू होते हैं। जब तक व्यक्ति उसे एक दृष्टिकोण से ही देखेगा, तब तक वह उस वस्तु का एकपक्षीय ज्ञान ही प्राप्त कर सकेगा। सर्वांगीण ज्ञान तभी होगा, जब वह उसे सभी दृष्टियों से देखेगा। किसी वस्तु को सर्वांगीण दृष्टि से देखना ही वस्तुसत्य से परिचित होना है। यह मार्ग अनेकांत से प्रशस्त होता है। सौभाग्य से हमें विरासत के रूप में यह सिद्धांत प्राप्त हुआ है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस महान सिद्धांत का पूरा-पूरा मूल्य आंकें। इसका पूरा-पूरा मूल्य आंकने का तात्पर्य है-अनंत सत्य की प्राप्ति और अनंत सत्य की प्राप्ति अर्थ है-भगवान की प्राप्ति। आगमों में कहा गया है-सच्चं भयवं। यानी सत्य ही भगवान है। वीतराग आदर्श हैं
यह तो हुई अनेकांत की बात। श्लोक की दूसरी बात भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वीतराग को सर्वश्रेष्ठ इष्ट/देव बताया गया है। वीतराग यानी राग-द्वेषविजेता। जिस व्यक्ति ने लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवनमृत्यु, निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि विभिन्न द्वंद्वों में सम रहना सीख लिया है, वह वीतराग है। सचमुच यह सांसारिक प्राणी की आदर्श स्थिति है। इस आदर्श तक पहुंचनेवाला ही सच्चा देव है। हम वीतराग को आदर्श मानकर चलें, क्योंकि आखिर हमें भी वहीं जाना है, उसी शिखर पर पहुंचना है, जिस पर वीतराग पहुंचे हैं। आज हम जिस स्थिति में हैं, वह संतोषजनक स्थिति नहीं है। एक क्षण में रोष और एक क्षण में तोष, प्रशंसा सुनकर फूल जाना और आलोचना सुनकर नाराज हो जाना यह अधूरेपन का द्योतक है। निश्चय ही यह स्थिति उपादेय नहीं है।
आप पूछेगे कि इस स्थिति से हमारा छुटकारा कब होगा। इसका उत्तर तो बहुत स्पष्ट है। जिस दिन वीतरागता का शिखर छू लेंगे, वीतराग बन जाएंगे, उस दिन इस स्थिति से आपका स्वतः छुटकारा हो जाएगा, पर इसका यह अर्थ नहीं कि इस शिखर तक पहुंचे बिना आप अपनी इस स्थिति में बिलकुल भी परिवर्तन नहीं कर सकते। मेरा मानना है कि पूर्ण
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