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नुकसान भी पहुंचाता है। इसके विपरीत भूख में सूखी रोटी भी मीठी लगती है और शरीर के लिए पोषक बनती है। इसलिए तुम्हें यदि पिता की आज्ञा का पालन करना है तो तुम बिना भूख भोजन न करने का संकल्प कर लो।'
लड़के को अपने पिता के इस मित्र के ऊपर गहरी श्रद्धा थी। उसने उसकी बात मानकर बिना भूख भोजन न करने का संकल्प ग्रहण कर लिया। अब पिता-मित्र ने उसकी चिकित्सा अपने हाथ में ली। सबसे पहले उसे एक सप्ताह तक लंघन करवाया, पर इस पर भी जब उसकी भूख पूरी खुली नहीं, तब उसने विरेचन तथा कुछ औषध का प्रयोग किया। अब उसे खुलकर भूख लगी। पिता-मित्र ने उसे खाने के लिए खिचड़ी दी। वह उसे अत्यंत मीठी और स्वादिष्ट लगी। कुछ दिन तक पिता-मित्र ने बराबर संभाल रखकर उसे पुनः स्वस्थ बना दिया।
बंधुओ! इस कहानी से आप समझ सकते हैं कि खाने-पीने का विवेक शारीरिक दृष्टि से कितना आवश्यक है। अविवेक के कारण व्यक्ति अनेक तरह की समस्याओं को अनचाहे ही आमंत्रण दे देता है। धार्मिक दृष्टि से यह अविवेक हिंसा है। अहिंसा की साधना के लिए विवेक का बहुत मूल्य है। लोग कहते हैं, आज अनाज की कमी है। मैं ऐसा तो नहीं कह सकता कि अनाज की कमी नहीं है, पर इतना अवश्य कह सकता हूं कि उसका दुरुपयोग बहुत अधिक होता है। शायद इस कमी का यह एक बहुत बड़ा कारण है। यदि लोगों में खाने-पीने के संदर्भ में विवेक जाग जाए तो उसका दुरुपयोग रोका जा सकता है; और यदि दुरुपयोग रुक जाता है तो यह अभाव की समस्या काफी रूप में स्वतः समाहित हो सकती है। अनाज का दुरुपयोग करना राष्ट्रीय दृष्टि से तो अनुचित है ही, धार्मिक दृष्टि से भी हिंसा है। इसी क्रम में खाने में जूठन छोड़ना भी हिंसा है। खाद्य-संयम अहिंसा है; अनेक प्रकार की शारीरिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं का समुचित समाधान है। पाप-बंधन और आसक्ति
यह खाद्य-संयम की बात विवेक से संबद्ध है। विवेकशील प्राणी खाने-पीने में ही नहीं, अपितु जीवन की हर प्रवृत्ति में अहिंसा की पुट रख सकता है। एक व्यक्ति वृक्ष काटता है। वृक्ष काटना हिंसा है, यह स्पष्ट है, पर उसका विवेक यदि जाग्रत है तो वह यह हिंसात्मक प्रवृत्ति करते समय
अहिंसा और अनासक्ति
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