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विवेकपूर्वक करता है और दूसरा अविवेकपूर्वक । जहां विवेकपूर्वक करनेवाला व्यक्ति हिंसा से बच जाता है, वहीं अविवेकपूर्वक करनेवाला हिंसा का पाप ओढ़ लेता है । आप उदाहरण से समझें । दो व्यक्ति भोजन करते हैं। एक व्यक्ति भोजन करता है अपने संयम के निर्वाह के लिए; स्वाध्याय, ध्यान, सेवा आदि प्रवृत्तियां सुचारु ढंग से संपादित करने के लिए और दूसरा करता है जीभ के स्वाद के लिए | तत्त्व की भाषा में पहले व्यक्ति का भोजन करना हिंसा नहीं है और दूसरे व्यक्ति का भोजन करना हिंसा है। बहुत-से व्यक्ति ऐसे हैं, जो भूख न होने पर भी खाते हैं, शिष्टाचार के लिए खाते हैं या भूख से अधिक खाते हैं। उपवास के पहले दिन और अगले दिन खूब डटकर खाते हैं। स्वादिष्ट भोजन मिल जाए तो चार दिनों का काम एक दिन में ही कर लेना चाहते हैं। ये सब अविवेक की बाते हैं, इसलिए हिंसा की कोटि में हैं।
खाद्य असंयम और शारीरिक अस्वास्थ्य
भोजन के अविवेक से होनेवाली हिंसा की बात कोई समझे या न भी समझे, पर इससे होनेवाले शारीरिक स्वास्थ्य के नुकसान की बात तो कोई थोड़ा भी समझदार व्यक्ति बहुत आसानी से समझ सकता है। जो लोग खाने-पीने का अविवेक करते हैं, वे धार्मिक दृष्टि से तो अपनी आत्मा को पाप से भारी बनाते ही हैं, शारीरिक दृष्टि से भी बहुत नुकसान उठाते हैं। बहुत-सी बीमारियां खाने-पीने के अविवेक के कारण ही पैदा होती हैं। मैं कई बार सोचता हूं कि बिना भूख लोग क्यों खाते हैं। एक समाधान मिलता है - स्वाद के लिए, किंतु फिर लगता है, यह बात पूरी सही नहीं है । कोई भी पदार्थ स्वादिष्ट तभी लगता है, जब भूख हो । भूख बिना स्वादिष्ट पदार्थ भी अस्वादिष्ट हो जाता है, निकम्मा हो जाता है, पोषण के स्थान पर अस्वास्थ्य का कारण है ।
मीठा भोजन करना !
बाप ने अपने अंतिम समय में पुत्र को सीख देते हुए कहा- 'बेटे ! ध्यान रखना, मीठा भोजन करना ।' पुत्र मूर्ख था। उसने बाप की सीख के शब्द पकड़ लिए, उनका भावार्थ नहीं समझा। दो-चार दिन पश्चात ही पिता का स्वर्गवास हो गया। पिता का शोक संपन्न होते ही पुत्र ने पिता की सीख के अनुसार नित्य मिठाई खाना शुरू कर दिया, पर दस - -पंद्रह दिन मुश्किल से निकले होंगे कि वह बीमार पड़ गया। इसके बावजूद उसने
अहिंसा और अनासक्ति
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