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बोला-'आज तो बहुत ही अच्छी बोहणी हुई! खूब लाभ मिलेगा! सुबहसुबह रूपा के दर्शन हुए हैं!' तीसरे दिन सुबह वही व्यक्ति दुकानदार के पास फिर पहुंचा। आज भी उसने दुकानदार को एक रुपया दिया। पर यह क्या! खुश होने के स्थान पर आज दुकानदार एकदम नाराज-सा हो गया। रुपया दूर फेंकता हुआ बोला-'आज का दिन तो व्यर्थ हो गया। सुबहसुबह नकली रुपया आया है।' ग्राहक रहस्य समझ नहीं पाया। उसने पूछा-'भाई! परसों मैं तांबे का पैसा लाया। उसे शुभ मान तुम खुश हुए। कल मैं चांदी का रुपया लेकर आया। तब तुम और अधिक खुश थे। फिर आज तो तुम्हें कल से भी ज्यादा खुश होना चहिए। इसमें तो तांबा और चांदी दोनों हैं।' दुकानदार को ग्राहक की इस नासमझी पर बड़ी झुंझलाहट हुई। उसी भावधारा में वह बोला-'शुद्ध तांबे का पैसा शुभ है। शुद्ध चांदी का रुपया भी शुभ है, पर ऊपर तो चांदी का झोल और अंदर तांबा-यह मिश्रण धोखा है,अशुभ है। इसलिए किसी काम का नहीं।'
. दृष्टांत का आशय स्पष्ट करते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा-'तांबे के पैसे की तरह वे गृहस्थ/श्रावक हैं, जो आंशिक व्रत स्वीकार करके उन्हें अच्छे ढंग से निभाते हैं। चांदी के रुपए के समान साधु-साध्वियां हैं, जो महाव्रत शुद्ध रूप में पालते हैं। नकली सिक्के की तरह वे लोग हैं, जो ऊपर से तो साधु का वेश धारण करते हैं, साधु की पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं और मन में संसार बसाए हुए हैं, मोह-माया के जाल में फंसे हुए हैं। ऐसे नामधारी/वेशधारी साधु-साध्वियां उन श्रावकों/गृहस्थों से अच्छे कदापि नहीं, जो अपने स्वीकृत व्रतों/नियमों का सम्यक पालन करते हैं।'
बंधुओ! आप भी यह तथ्य समझें। जो साधु-संन्यासी माया में फंसे हुए हैं, धन बटोरने में लगे हुए हैं, वे आपसे श्रेष्ठ नहीं हैं, बल्कि आप उनसे श्रेष्ठ हैं। कम-से-कम आप किसी के लिए धोखा तो नहीं बनते, किसी के साथ छलना तो नहीं करते। ऐसी स्थिति में वे तथाकथित साधुसंन्यासी आपके गुरु कैसे हो सकते हैं? उन्हें गुरु मानना भयंकर भूल है। जैसे नकली सिक्का रखनेवाला सरकार और कानून का गुनहगार है, वैसे ही कुगुरु को गुरु माननेवाला भगवान का गुनहगार है। जरूरी है हंस-विवेक
कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि कौन साधु त्यागी है और कौन नहीं, इसकी गहराई में हम क्यों जाएं। हम तो सबको समान ही मानते हैं। मैं उन
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आगे की सुधि लेइ
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