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परनिंदा। एक पार्टी का उम्मीदवार कहता है-'आप जानते ही हैं कि मुझे कुर्सी की जरा भी भूख नहीं है। मैं तो एकमात्र सेवा की भावना से इस चुनाव में आया हूं। इसके माध्यम से मैं मात्र समाज और राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य अदा करना चाहता हूं। आप लोगों का सहयोग प्राप्त हुआ तो मैं जनसेवा, राष्ट्रसेवा की अपनी भावना पूरी कर सकूँगा। '
प्रतिपक्षी उम्मीदवार कहता है-'मैं आपका हितैषी हूं, इसलिए एक गुप्त रहस्य की बात बताना अपना कर्तव्य समझता हूं। अमुक व्यक्ति चुनाव में उम्मीदवार के रूप में खड़ा है। उसका चरित्र एकदम गिरा हुआ है। वह जुल्मी है, शराबी है, बदमाश है...... वह एकमात्र कुर्सी प्राप्त करने की भावना से चुनाव लड़ रहा है। राष्ट्रसेवा या जनसेवा से उसका कोई सरोकार नहीं है। आप अपना बहुमूल्य वोट भले मुझे दें या न दें, पर उसे देकर जहरीले सांप को तो न पालें।
___ इस प्रकार प्रारंभ में स्वप्रशंसा और परनिंदा के माध्यम से कुर्सी हथिया ली जाती है। कुर्सी मिल जाने के बाद एकदम तैवर बदल जाते हैं। राष्ट्र-सेवा और जन-सेवा की बात शायद याद ही नहीं आती। पिछले दिनों हम श्रीगंगानगर में थे। श्रीगंगानगर एक बड़ा शहर है। वहां म्युनिसिपल बोर्ड है। बोर्ड के चैयरमेन मेरे पास आए थे। उन्होंने बताया कि बोर्ड की आय अच्छी है, पर व्यवस्था अच्छी नहीं है। इसका कारण भी अस्पष्ट नहीं है। एक व्यक्ति अधिकार पर आता है। वह पूरा जमता नहीं कि उससे पहले दूसरे-दूसरे लोग उसे हटाकर स्वयं आने की चेष्टा करने लगते हैं। उधर अधिकारप्राप्त व्यक्ति अपनी कुर्सी की सुरक्षा का उपाय करता है। इस प्रयत्न में अत्यंत हलके तरीके काम में लिए जाते हैं। उनके कारनामे जब सामने आते हैं, तब जनता का उन पर से विश्वास उठ जाता है। इस स्थिति में उसका सहयोग प्राप्त नहीं होता; और जनता के सहयोग के अभाव में कोई अधिकारी व्यवस्थित रूप में काम नहीं कर पाता। यह श्रीगंगानगर का एक उदाहरण मैंने दिया है। पर कुछ कमोबेश यह स्थिति लगभग सभी स्थानों की है। यह स्थिति नहीं सुधारी गई तो विकेंद्रित व्यवस्था का पूरा-पूरा लाभ जनता को नहीं मिल सकेगा। अच्छाई को प्रतिष्ठा मिले
मैं मानता हूं, किसी ग्राम या शहर के सभी लोग अच्छे नहीं होते। बावजूद इसके, इतना सुनिश्चत है कि जो अच्छे व्यक्ति होते हैं, वे हर .२१४
----- आगे की सुधि लेइ
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