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करना अपेक्षित होता है। इस मान्यतावाले कुछ व्यक्ति कभी-कभी मुझसे प्रश्न करते हैं कि आप अवतारवाद को मानते हैं या नहीं। उन्हें मेरा बहुत स्पष्ट उत्तर होता है कि यदि कोई परमात्मा बनकर संसार में आता है तो उसका परमात्मा बनना बेकार है। जैन-दर्शन की मान्यतानुसार परमात्मपद प्राप्त कर लेने के बाद कोई व्यक्ति पुनः संसार में नहीं आ सकता, और जो संसार में जन्म ग्रहण करता है, वह परमात्मा कदापि नहीं हो सकता। वस्तुतः व्यक्ति साधना/तपस्या के द्वारा आत्मा से परमात्मा की चढ़ाई चढ़ता है, और जैसे ही वह परमात्म-पद का शिखर छूता है, उसकी संसार से सदा-सदा के लिए मुक्ति हो जाती है, उसके वापस आने की बात बिलकुल समाप्त हो जाती है। मैंने अवतारी पुरुषों का जो प्रयोग किया है, वह ईश्वर के संदर्भ में नहीं है। उसका तात्पर्य है-आत्मकल्याण और जनकल्याण दोनों दृष्टियों से काम करनेवाले व्यक्ति। वैसे गहराई से देखा जाए तो अवतार और जन्म-इन दोनों शब्दों में कोई अंतर नहीं है। मात्र हमारे कहने के प्रकार का अंतर है। उदाहरणार्थ, सामान्यतः जाट जाट कहलाता है, पर विशेष अपेक्षा से वह चौधरी कहलाने लगता है। इसी प्रकार सिक्ख और सरदार, बणिया और सेठसाहब आदि शब्द व्यवहृत होते हैं। अवतारी पुरुष कहने के पीछे भी यह विवक्षा है। ज्ञान आलोक है
जैसाकि मैंने प्रारंभ में कहा, स्वयंबुद्ध/तीर्थंकर को ज्ञान-प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वे सत्संग भी नहीं करते, संतजनों का उपदेश भी नहीं सुनते। उन्हें सहज रूप से ज्ञान हो जाता है, पर ऐसे लोग तो अंगुलियों पर गिने जा सकें, उतने ही होते हैं। संसार के आम लोगों को तो ज्ञान-प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना ही होता है। उनके लिए सत्संग करना, उपदेश सुनना आदि बातें जरूरी होती हैं। खैर, ज्ञान चाहे कैसे भी क्यों न हो, वह प्राणी के लिए जीवन का आलोक है। जीवन के पग-पग पर उसका मूल्य है, सांस-सांस में उसका उपयोग है। जहां ज्ञान नहीं होता है, वहां व्यक्ति बुराइयों के अरण्य में भटक जाता है। कवि ने अज्ञान को जीवन का सबसे बड़ा कष्ट बताया है
अज्ञानं खलु कष्टं, क्रोधदिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः। अर्थं हितमहितं वा, न वेत्ति येनावृतो लोकः॥
अच्छे और बुरे का विवेक
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