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३८ : अच्छे और बुरे का विवेक
आत्म-विकास के तीन तत्त्व हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। हालांकि तीनों में से प्रत्येक तत्त्व अपने-आपमें मूल्यवान है, तथापि आत्म-विकास के लिए तीनों का सम्यक योग होना आवश्यक है। तीनों में से कोई भी एक अभीप्सित लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता। हमारी बहिनें हलुआ बनाती हैं। हलुआ बनाने के लिए आटा, घी और चीनी-इन तीनों चीजों की जरूरत रहती है। केवल आटा, घी अथवा चीनी से हलुआ नहीं बन सकता। यही बात ज्ञान, दर्शन और चरित्र के संबंध में समझनी चाहिए। इन तीनों का सम्यक योग ही व्यक्ति को आत्म-विकास के पथ पर अग्रसर कर सकता है, आत्म-विकास के शिखर पर पहुंचा सकता है। ज्ञान-प्राप्ति के दो प्रकार
तीनों में से पहला तत्त्व है-ज्ञान। ज्ञान दो प्रकार से होता है-सुनने से और पिछले संस्कारों से। संसार में अधिकतर व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनके संस्कार इतने प्रबल नहीं होते कि उन्हें स्वयं ज्ञान हो जाए। उन्हें तो ज्ञान-प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या करनी होती है, तीव्र पुरुषार्थ करना होता है। हां कुछ लोगों को संस्कारगत ज्ञान होता है। उन्हें स्वयंबुद्ध कहते हैं। वे किसी का उपदेश नहीं सुनते, सत्संग नहीं करते, पढ़ते भी नहीं। आप पूछेगे कि ऐसा क्यों। इसका कारण तो बहुत स्पष्ट है। उनका ज्ञान सहजतया इस ढंग से अनावृत हो जाता है कि पढ़ने की बात स्वयं कृतार्थ हो जाती है। यह संस्कारगत ज्ञान तीर्थंकर जैसे अवतारी पुरुषों को होता है।। क्या भगवान अवतार लेते हैं
बहुत-से लोगों की ऐसी मान्यता है कि हर युग में परमात्मा अवतार लेते हैं। कारण यह है कि संसार की दयनीय स्थिति देखकर उनकी आत्मा द्रवित हो जाती है। अतः संसार के प्राणियों का पथ-दर्शन
- आगे की सुधि लेइ
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