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३५ : आकांक्षाओं का संयम
संयोग-वियोग
संयोग और वियोग दो स्थितियां हैं। जहां संयोग है, वहां वियोग की आशंका रहती है। यह आशंका दुःख का कारण है। जो लोग दुनियावी धंधों में फंसे रहते हैं, उन्हें यह महसूस नहीं हो सकता। दार्शनिकों ने जहां बंधन और मक्ति का विवेचन किया है, वहां वियोग की आशंका को दुःख का निमित्त बताया है। ____ मैं जहां तक सोचता हूं, वियोग से अधिक दुःख संयोग में है। संयोग सृष्टि है और वियोग समाप्ति है। सृष्टि से दुःख का प्रारंभ होता है। पूछा जा सकता है कि दुःख से मुक्ति कैसे मिले। जो अपनी आकांक्षा, अभिप्राय या इच्छा का निरोध करता है, वही दुःख से मुक्ति पाता है। चिंतन की दो धाराएं
सुख के दो प्रकार हैं। एक सुख है आकांक्षा-वृद्धि में। दूसरा सुख है आकांक्षाओं के अल्पीकरण में। पश्चिमी देशों में पहला प्रकार काफी बल पकड़ रहा है। वहां के लोगों की धारणा है कि आकांक्षाएं घटाना संकीर्णता है। इससे विकास नहीं होता। आकांक्षा से आवश्यकता जनमती है। आवश्यकता से आविष्कार होते हैं। आविष्कार से उत्पत्ति, उत्पत्ति से संपत्ति और संपत्ति से सुख मिलता है। वे इस भाषा में सोचते हैं कि जहां खाने को रोटी भी नहीं है, वहां सुख कैसे मिलेगा।
_ भारतीय चिंतन इससे भिन्न रहा। यहां के चिंतकों ने कहा कि आकांक्षाएं असीम हैं। आकांक्षाओं की वृद्धि दुःख का कारण है, इसलिए इन्हें कम करो। आकांक्षाओं की कमी से आवश्यकताएं भी असीम नहीं बनेंगी। आवश्यकताओं की सीमा होने पर प्रवृत्तियां अधिक बढ़ेगी नहीं और प्रवृत्तियां सीमित रहेंगी तो झंझट कम होंगे। इस प्रकार सहजतया
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आगे की सुधि लेइ
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