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पांचवीं घटिका भी अपनी राह गुजर गई। पर वार्ता का अंत नहीं आया। प्रत्येक नवोढ़ा भौतिक सुख और सांसारिक भोग भोगने के पक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत कर रही थी तो जंबूकुमार हर-एक के तर्क काटता हुआ संयम और त्यागमय जीवन की सार्थकता सिद्ध कर रहा था।
जिस समय यह क्रम चल रहा था, ठीक उसी समय धन के लोभी पांच सौ चोर श्रेष्ठि ऋषभदत्त के भवन में घुसे। जंबूकुमार की शादी में कन्यापक्षवालों के वहां से निन्यानबे करोड़ सोनयों का दहेज आया था। यह खबर चोर-गिरोह के स्वामी प्रभव को मिल चुकी थी। प्रभव अपनी चौर्यकला के लिए कुख्यात था। हालांकि वह एक राजपुत्र था, फिर भी किसी कारण वह इस घृणित धंधे से जुड़ गया था।
प्रभव के पास अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी नामक दो चामत्कारिक विद्याएं थीं। उसने अवस्वापिनी का प्रयोग किया और पहरेदारों-सहित सभी को निद्राधीन बना दिया। फिर तालोद्घाटिनी का प्रयोग करके सारे ताले खोल लिए। धन बटोरने में अब कोई कठिनाई नहीं थी। उसने अपने चोर अनुचरों को धन के गट्ठर बांधने का आदेश दिया। कुछ ही देर में अनुचरों ने धन के गट्ठर बांध लिए। पर ज्योंही वे उन्हें उठाकर ले जाने को उद्यत हुए कि उनके हाथ-पांव वहीं चिपक गए। उनके लिए हिलना-डुलना भी असंभव हो गया।
प्रभव को इस स्थिति की खबर नहीं थी। उसने अनुचरों को बुत की तरह खड़े देखा तो वह बोला-'खड़े-खड़े क्या देख रहे हो; गट्ठर उठाकर चलते क्यों नहीं?' अनुचरों ने कहा-'हमारे तो हाथ-पैर चिपक गए हैं। फिर चलें कैसे ? पता नहीं, यह कैसी माया है, हम तो गहरे संकट में फंस गए है!
प्रभव को अब स्थिति का आकलन करते समय नहीं लगा, और इस आकलन के साथ ही वह चिंतित हो उठा। यदि यही हालत रही तो प्रातःकालीन प्रकाश होते ही सब रंगे हाथों पकड़े जाएंगे। रहस्य जानने के लिए वह भवन में इधर-उधर घूमने लगा। घूमते-घूमते उसकी नजर एक कक्ष पर टिकी। उसके अंदर से प्रकाश-किरणें बाहर निकल रही थीं। वह उस कक्ष के पास गया तो उसे अस्पष्ट-सी आवाज सुनाई दी। उसे यह अनुमान लगाते देर नहीं लगी कि अंदर कुछ लोग हैं और वे परस्पर वार्तालाप कर रहे हैं। इसके साथ ही उसे यह भी अनुमान हो गया कि
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- आगे की सुधि लेइ
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