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परिस्थिति में अपनी अच्छाई की टेक निभाते हैं। उसे छोड़ते नहीं। सचमुच विषम परिस्थितियों में भी अपना उच्च आदर्श निभाना बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। कज्जल की कोठरी में रहकर भी काला दाग न लगाने-जैसी बात है। हालांकि अच्छे और बुरे की मूल कसौटी तो व्यक्ति का स्वयं का मन ही होता है, तथापि व्यवहार की कसौटी जनता है। जनता का काम है कि वह अच्छे और बुरे की सही-सही कसौटी करे और जो लोग कसौटी पर खरे उतरें, उन्हें अपना नैतिक समर्थन दे। अच्छे व्यक्तियों को समर्थन देने का अर्थ है अच्छाइयों को समर्थन देना। इससे अच्छाइयों को पनपने और प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलता है। यह बहुत साफ-साफ बात है कि जहां अच्छे व्यक्ति आगे आएंगे, अच्छाइयां प्रतिष्ठित होंगी, वहां समाज
और राष्ट्र का वातावरण भी स्वस्थ बनेगा। उत्तरदायी कौन
कुछ लोग अपनी मानसिक दुर्बलता के कारण बुराई करते हैं, पर उसकी जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते। उसे दूसरों पर डाल देते हैं। इस क्रम में वे ईश्वर को भी नहीं बख्शते। वे कहते हैं कि हम कुछ भी करनेवाले कौन होते हैं। सब प्रभु की कृपा और इच्छा से होता है। उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । प्रभु ने जैसा चाहा, वैसा हमारे द्वारा हो गया। पर जैन-दर्शन इस बात में विश्वास नहीं करता। यद्यपि वह ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकार नहीं करता, तथापि किसी की अच्छी-बुरी प्रवृत्ति की जिम्मेदारी वह उस पर नहीं डालता। व्यक्ति के अच्छे-बुरे बनने के लिए वह स्वयं व्यक्ति को ही जिम्मेदार मानता है। व्यक्ति गलत पुरुषार्थ करता है तो वह बुरा हो जाता है और अच्छा पुरुषार्थ करता है तो अच्छा बन जाता है। यानी व्यक्ति स्वयं जैसा बनना चाहता है, वैसा बन सकता है। ईश्वर का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता। एक व्यक्ति ने जहर खाया। परिणाम यह आया कि वह मर गया। मैं पूछना चाहता हूं कि उसके मरने के लिए जिम्मेदार कौन है; क्या ईश्वर ने उसे मारा। नहीं, ईश्वर ने उसे बिलकुल नहीं मारा। उसे मारा उसके स्वयं के गलत पुरुषार्थ ने, उसकी स्वयं की गलत प्रवृत्ति ने। यदि वह आवेश में आकर जहर नहीं खाता तो क्यों मरता? इसलिए आप यह तत्त्व गहराई से समझें कि अच्छा और बुरा बनना व्यक्ति के स्वयं के हाथ का खेल है। वह अच्छा बनना चाहे तो अच्छा बन सकता है और बुरा बनना चाहे तो बुरा भी बन सकता है।
जाग्रत जीवन
-२१५.
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