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३४ : जाग्रत जीवन
साधक और सजगता
भगवान महावीर ने कहा-समयं गोयम! मा पमायए-गौतम! तू क्षण-भर भी प्रमाद मत कर। यों तो जागरूकता की यह बात गणधर गौतम को संबोधित करके कही गई है, पर समझने की बात यह है कि महावीर का यह सजगता-संदेश आत्म-साधना के पथ पर बढ़नेवाले हर पथिक के लिए है। वस्तुतः साधना सजगता का ही दूसरा नाम है। साधक स्वयं सजगता का जीवन जीता है और जन-जन को सजगता का संदेश सुनाता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा सकता है कि जो साधक जितना अधिक जागरूक होता है, वह उतना ही अधिक दूसरों को जागरूकता की प्रेरणा दे पाता है। साधक की जागरूकता की कमी उसकी अभिप्रेरणा को भी कमजोर बना देती है। उभयानुकंपी होते हैं साधु-संत
___ कुछ लोगों का ऐसा चिंतन है कि साधु-संतों को तो मात्र अपनी साधना करनी चाहिए; आत्मकल्याण करना चाहिए, दूसरों के बारे में सोचने से उन्हें क्या मतलब, पर मैं इस चिंतन से सहमत नहीं हूं। मेरा चिंतन यह है कि साधु-संतों को स्वयं की साधना तो करनी ही चाहिए, साथ-ही-साथ जनता को भी सत्पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देनी चाहिए। यदि साधु-संत ही जन-जन को सत्पथ पर बढ़ने की प्रेरणा नहीं देंगे तो देगा ही कौन? वस्तुतः वे ही इसके एकमात्र अधिकारी हैं। जो स्वयं ही उत्पथ में हैं, वे दूसरों को सही पथ पर कैसे लाएंगे? जो स्वयं ही अंधकार में हैं, वे दूसरों को प्रकाश कैसे बांटेंगे? साधु-संत चूंकि स्वयं सत्पथ के राही होते हैं, प्रकाश के पुंज होते हैं, इसलिए वे दूसरों को भी सत्पथ दिखा सकते हैं, प्रकाश बांट सकते हैं। इसी अपेक्षा से कहा गया है-साध्नोति स्वपरकार्याणीति साधवः। अर्थात जो स्व और पर दोनों का कार्य
जाग्रत जीवन
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