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हैं। इसलिए जहां ये दोनों तत्त्व जीवन में साकार रूप ग्रहण करते हैं, जीवनगत बनते हैं, वहां शांति की बात स्वयं समाहित हो जाती है। मैंने एक स्थान पर लिखा है
बिन सत्य-अहिंसा शांति नहीं, चाहे हो कितनी क्रांति नई | है सत्य-अहिंसा कामदुहा, 'तुलसी' यदि दोहन कर ऐ दुनियावालो ! सुनो जरा दिल की दुविधा को जीवन में सत्य - अहिंसा को अनिवार्य रूप से
अस्तु, इस सत्य-अहिंसामय धर्म का तत्त्व आप आत्मसात करें। निश्चय ही आपके जीवन में सुख और शांति की धार बह जाएगी। अणुव्रत इसी धर्म को आत्मगत, जीवनगत और व्यवहारगत बनाने का सीधा-सा प्रयोग है। इसके छोटे-छोटे संकल्पों में व्यक्ति का जीवन रूपांतरित करने की अद्भुत शक्ति है। हजारों-हजारों लोगों ने इसके माध्यम से अपनाअपना जीवन संवारा है, उसे अभिशाप से वरदान बनाया है। कल तक जो बुरे आदमी के रूप में जाने-पहचाने जाते थे, वे ही आज सन्नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आप भी अणुव्रती बनकर यह गौरव प्राप्त करें । निस्संदेह, आप अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव कर सकेंगे।
श्रीकर्णपुर २० अप्रैल १९६६
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पाओ ॥
दफनाओ । अपनाओ ।।
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आगे की सुधि लेइ
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