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३३ : आत्मदर्शन : जीवन का वरदान
भारतीय संस्कृति का स्वरूप
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भारतीय संस्कृति त्याग - प्रधान संस्कृति है, संयम प्रधान संस्कृति है, अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है। हालांकि भोग को भी इसने अस्वीकार नहीं किया है, तथापि इतना बहुत स्पष्ट है कि इसे जीवन के सर्वोच्च मूल्य के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया है। सर्वोच्च मूल्य के रूप में यहां त्याग ही प्रतिष्ठित रहा है, संयम ही प्रतिष्ठापित रहा है। यही कारण है कि भौतिकता के इतने प्रचार-प्रसार के बावजूद यहां के जन-मानस में त्याग और संयम के प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना है। बड़े-बड़े धनकुबेरों और सम्राटों के समक्ष जो मस्तक नहीं झुकते, वे अकिंचन संतों के चरणों में प्रणत होते हैं, क्योंकि संत - जन त्याग और संयम के मूर्त रूप होते हैं, अध्यात्म के जीवंत प्रतीक होते हैं।
धर्म की शाश्वत सत्ता
त्याग, संयम और अध्यात्म की इस संस्कृति का बीजारोपण ऋषिमहर्षियों द्वारा हुआ है। सिद्धांततः वे इसके एकमात्र अधिकारी हैं। जो स्वयं त्याग - संयम को नहीं जीता, अध्यात्म की साधना के प्रति समर्पित नहीं होता, वह इसका बीजारोपण कर भी कैसे सकता है ? संतजन आज भी इस गौरवमयी संस्कृति को पल्लवित पुष्पित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। धर्म त्याग, संयम और अध्यात्म को जीने की शैली का ही नाम है। हालांकि धर्म की सत्ता समाप्त करने का बार-बार प्रयत्न हुआ है, हो रहा है, पर वह अपना अस्तित्व ज्यों-का-त्यों बनाए हुए है। भविष्य में भी उसके अस्तित्व को कोई खत्म कर सके, यह संभव नहीं है। इसका कारण है- उसकी शाश्वत चेतनशीलता । जो पदार्थ अपनी चेतनशीलता बनाए रखता है, वह किसी के हजार चाहे भी खत्म नहीं होता ।
धर्म व्यक्ति-व्यक्ति को आत्मदर्शी बनने की प्रेरणा देता है। आत्मदर्शन
आत्मदर्शन : जीवन का वरदान
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