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३० : विद्याध्ययन : क्यों : कैसे*
जीवन का स्वर्णिम काल
विद्यार्थी समाज या राष्ट्र की नींव होते हैं, पृष्ठभूमि होते हैं। समाज और राष्ट्र का विकास उनके विकास पर ही निर्भर करता है। विद्यार्थी-काल वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति के विकास की सर्वाधिक संभावनाएं रहती हैं। साथ ही इस अवस्था में होनेवाला विकास स्थायी भी होता है। इस दृष्टि से विद्यार्थीकाल को यदि जीवन का स्वर्णिम काल कहा जाए तो अनुपयुक्त नहीं होगा। जो व्यक्ति इस स्वर्णिम काल का सही ढंग से उपयोग नहीं करता, उसे बाद में पछताना पड़ता है। विद्यार्थी कौन
प्रश्न होता है कि विद्यार्थी किसे कहा जाए। सामान्यतः स्कूलोंकॉलेजों में पढ़नेवाले लड़के-लड़कियों को विद्यार्थी माना जाता है। यह उम्र साधारणतया पचीस वर्ष के आस-पास तक रहती है, पर मेरा चिंतन ऐसा है कि विद्यार्थी की कोई उम्रविशेष नहीं होती, यह तो एक मानसिकताविशेष का नाम है। व्यक्ति का मानस जब तक जिज्ञासु है, ग्रहणशील है, वह विद्यार्थी है। इस विवक्षा से एक सत्तर वर्ष का व्यक्ति भी विद्यार्थी हो सकता है। इसके ठीक विपरीत एक दस वर्ष का बालक भी विद्यार्थी नहीं हो सकता, यदि उसके मन में जिज्ञासा नहीं है, ग्रहणशीलता नहीं है। मैं अपने-आपको सदा विद्यार्थी मानता हूं। आज भी मन में नया जानने की भावना रहती है। जहां-कहीं कोई उपयोगी बात मेरे ध्यान में आती है, मैं उसे ग्रहण करने का प्रयत्न करता हूं। मेरे सामने बहुत-से अध्यापक बैठे हैं। कहीं वे अपने-आपको पूर्ण तो नहीं मान बैठे हैं ? खुद को पूर्ण मानना अपने विकास का द्वार बंद करना है, जबकि विद्यार्थी बनकर रहना सतत विकास की यात्रा है। मेरा अभिमत है कि वही अध्यापक कुशल अध्यापक *विद्यार्थी-सम्मेलन में प्रदत्त प्रवचन • १८६ -
- आगे की सुधि लेइ
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