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बन सकता है, जो स्वयं को विद्यार्थी मानकर चले। गहराई से देखा जाए तो अध्यापन अपने-आपमें पढ़ना ही है। यह कहना और अधिक उपयुक्त होगा कि स्वयं पढ़ने से जितना ज्ञान प्राप्त नहीं होता, उतना अध्यापन से होता है, बशर्ते कि जिज्ञासा का भाव मौजूद हो, ग्रहण करने की मानसिकता बनी हुई हो। इसलिए अध्यापक सदा विद्यार्थी बनकर रहें।
दूसरी बात यह भी है कि स्वयं को विद्यार्थी माननेवाला ही विद्यार्थियों के हृदय को छू सकता है। स्वयं को विद्यार्थी न माननेवाला विद्यार्थियों को पुस्तक भले पढ़ा दे, पर उनके साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकता; और तादात्म्य के अभाव में वह विद्यार्थियों को अपेक्षित ज्ञान देने में विफल रहता है। ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों के मन में भी उसके प्रति वह आदर और पूज्यता का भाव नहीं होता, जो एक शिक्षागुरु के प्रति होना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य
शिक्षा का उद्देश्य क्या है, इस प्रश्न पर हमारे विद्यार्थियों और अध्यापकों ने अवश्य चिंतन किया होगा। अधिकतर विद्यार्थी शायद ऐसा सोचते हैं कि हमें ऊंची डिग्री हासिल करनी है, ताकि अच्छी नौकरी प्राप्त हो सके। यदि पढ़ाई नहीं करेंगे तो सर्विस मिलने में कठिनाई हो जाएगी। और तो क्या, अनपढ़ लड़के से कोई अच्छी लड़की शादी भी करना नहीं चाहती। इसी प्रकार अध्यापक लोग सोचते हैं कि अध्यापन से आजीविका अच्छे ढंग से चलाई जा सकेगी। इससे पैसा तो मिलता ही है, इज्जत भी प्राप्त होती है। पर मैं मानता हूं कि यह सब शिक्षा का सही उद्देश्य नहीं है।
फिर शिक्षा का उद्देश्य क्या है? शिक्षा का उद्देश्य है-ज्ञानी बनना, आत्मा का साक्षात्कार करना या आत्मा का सर्वांगीण विकास करना। दशवैकालिक सूत्र में अध्ययन का लक्ष्य बताते हुए चार बातें बताई गई हैं
१. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ३. अप्पाणं मे ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ४. ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ।
-- १. भविष्य में मुझे ज्ञान मिलेगा। २. मैं एकाग्रचित्त बनूंगा। ३. मैं विद्याध्ययन : क्यों : कैसे
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