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रिश्ता है। यह बच्चा हमारा है, उससे पहले आपका है। आप ही इसके भविष्यनिर्माता हैं। जैसे-तैसे आप इसे अगली कक्षा में पहुंचने दीजिए।' यह है अभिभावकों की स्थिति ।
दूसरी ओर अध्यापक यह सोचते हैं कि बच्चे हमारे पास रहते ही कितनी देर हैं। हम उनके संस्कारों के बारे में क्यों सोचें । किंतु उन्हें सोचना चाहिए। भले बच्चे उनके पास बहुत कम समय तक रहते हैं, फिर भी उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
'तुलसी' संगत साधु की, हरे कोटि अपराध ॥
आदर्श अध्यापक के पास बच्चा एक घंटा भी रहता है तो उस पर असर होता है, लेकिन अध्यापक जब स्वयं ही दुर्व्यसनी हो, शराबी हो तो उसका क्या असर हो सकेगा ! ऐसे अध्यापक के विद्यार्थी भी सुसंस्कारी नहीं हो सकते। सुसंस्कारी अध्यापक के विद्यार्थी ही सुसंस्कारी हो सकते हैं। इसलिए विद्यार्थियों को सुसंस्कारित करने के लिए अध्यापकों को पहले स्वयं सुसंस्कारी बनना होगा। उनकी यह पहल विद्यार्थियों के जीवननिर्माण में निर्णायक सिद्ध होगी; और जहां विद्यार्थियों का जीवन निर्मित होगा, वहां अनुशासनहीनता - जैसे कुसंस्कारों के लिए अवकाश नहीं रहेगा।
बच्चों के जीवन-निर्माण में थोड़ा असर वातावरण और युग की पद्धति का भी होता है। छात्रों के अनुशासनहीनता आदि कुसंस्कारों का एक कारण अनुकरण भी है। एक स्कूल या कॉलेज में हड़ताल होती है तो दूसरे-दूसरे स्कूलों व कॉलेजों के विद्यार्थी एक बन जाते हैं, किंतु उनका यह संगठन अच्छे कामों में दिखाई नहीं देता। यदि ऐसा ही संगठन रचनात्मक प्रवृत्तियों के समय हो तो कितना अच्छा रहे !
गलती की भर्त्सना हो
कोई विद्यार्थी गुमराह है। वह गलती करता है, पर उसे दूसरों का प्रोत्साहन क्यों मिलता है ? यह प्रोत्साहन उस विद्यार्थी को नहीं, अपितु उसकी गलती को होता है। उस समय विद्यार्थी संगठित रूप में उस विद्यार्थी की भर्त्सना क्यों नहीं करते? जिस प्रकार गलती करनेवाले को प्रोत्साहन देना गलती को प्रोत्साहन देना है, उसी प्रकार गलती करनेवाले की भर्त्सना उस गलती की भर्त्सना है, प्रतिकार है, गलती करनेवाले
आगे की सुधि लेइ
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