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ब्राह्मणी की अमृत जैसी मधुर वाणी सुनकर सीता की प्यास आधी हो गई। ब्राह्मणी ने ससम्मान अतिथियों को बिठाया और स्वयं पंखा झेलने लगी। फिर वहां से उठी और पानी लेकर आई। पानी पीने से सबका कलेजा ठंडा हो गया। सबसे पहले अपना मौन तोड़ते हुए राम ने कहा - 'पानी सदा पीते हैं, पर आज के पानी जैसा मीठा पानी कभी नहीं पिया ।' लक्ष्मण बोले- 'बोलते सब हैं, पर आज की वाणी जैसी मीठी वाणी कभी नहीं सुनी।' सीता भी मौन नहीं रही। वह बोली- 'यहां जैसा सरस वातावरण है, वैसा सरस वातावरण अन्यत्र कहीं नहीं देखा ।'
राम, लक्ष्मण और सीता रास्ते की थकान मिटाकर चलने की तैयारी में ही थे कि इतने में घर का मालिक ब्राह्मण आ गया। उसने देखा, तीन राहगीर बैठे हैं और उनके पास मेरी पत्नी खड़ी है। बस, उसका खून खौल उठा। घर में पैर रखते ही पत्नी को लक्ष्य करके बड़बड़ाने लगा- 'हर व्यक्ति को घर में आने देती है, दुष्टा कहीं की ! तुझे शर्म तो आती ही नहीं है । कितनी बार कहा, पर तू मानती ही नहीं है । आज तुझे घर से निकालकर ही छोडूंगा।'
ब्राह्मणी बहुत ही लज्जित हुई। राम, लक्ष्मण और सीता से धीमे से बोली- 'आप चिंता न करें, इनकी प्रकृति कुछ ऐसी ही है ।'
इधर ब्राह्मण आपे से बाहर हो गया। चूल्हे से जलती हुई लकड़ी हाथ में लेकर बोला- 'अभी मुंह जलाता हूं कलमुंही का ! '
राम ने जब देखा कि हमारे कारण बेचारी महिला पर मुसीबत आ रही है, तब उन्हें चिंता होना स्वाभाविक था। वे उसे उस मुसीबत से बचाने का उपाय सोचने लगे। उधर ब्राह्मणी पति से बचने के लिए सीता के पीछे आकर खड़ी हो गई । ब्राह्मण आग उगलता हुआ वहां आया और उसके सतीत्व पर लांछन लगाने लगा । लक्ष्मण ने निर्णय किया, अब तो इसकी पूजा करनी होगी। बस, वे अपने स्थान से उठे । राम ने उन्हें रोका तो बोले- 'यह व्यक्ति इस योग्य नहीं है कि मैं इसे छोड़ दूं।'
लक्ष्मण ब्राह्मण का पैर पकड़कर उसे आकाश में चारों ओर घुमाने लगे । ब्राह्मण के हाथ में जलती हुई लकड़ी तो थी ही । ब्राह्मण के साथ वह भी चक्कर चढ़ गई। ब्राह्मण को कुछ देर घुमाकर लक्ष्मण ने राम से पूछा - 'इसे आकाश में छोड़ दूं क्या ?' यह सुनते ही ब्राह्मण चिल्लाया । लोग इकट्ठे हो गए। उन्होंने देखा - एक आकाशी दीया-सा जल रहा है और
आगे की सुधि लेइ
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