________________
२७ : साधना का प्रभाव
साधु संसार के लिए पूज्य होते हैं। मनुष्य तो साधु-संतों की पूजा करते ही हैं, देवता भी उनकी स्तुति करके स्वयं को धन्य मानते हैं। संतों की स्तुति में इंद्र कहता है
अहो ! ते अज्जवं साहु, अहो ! ते साहु मद्दवं । अहो ! ते उत्तमा खंती, अहो ! ते मुत्ति उत्तमा ॥ साधु और गृहस्थ का धर्म एक ही है
आर्जव, मार्दव, क्षांति और मुक्ति-ये मुनि के सहज गुण हैं। आर्जव का अर्थ है - ऋजुता या अकुटिलता। मुनि के लिए जिस आर्जव की बात हम सुनते हैं, उसका अंश गृहस्थों में भी होना चाहिए। मुनि का धर्म और गृहस्थ का धर्म दोनों भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते। मुनि का धर्म सरलता है तो गृहस्थ का धर्म वक्रता कैसे हो सकेगा ? मुनि का धर्म क्षमा है तो गृहस्थ का धर्म क्रोध कैसे हो सकेगा ? मुनि का धर्म सत्य है तो गृहस्थ का धर्म असत्य कैसे होगा ?
धर्म का वास्तविक रूप एक ही है। अंतर केवल मात्रा का है, क्योंकि साधु और गृहस्थ की खुराक समान नहीं होती। एक बत्तीसवर्षीय स्वस्थ युवक की जो खुराक होती है, क्या उसे एक बच्चा पचा सकता है ? यद्यपि खाद्य दोनों का एक ही है, पर मात्रा में अंतर है। इसी प्रकार मुनि-धर्म बहुत गहरा और ऊंचा है। उस ऊंचाई तक धर्म स्वीकार करने की क्षमता गृहस्थों में नहीं होती। इसलिए वे उसे आंशिक रूप में ही स्वीकार करते हैं।
मुनिधर्म और गृहस्थधर्म को दो मानने का अर्थ यह होगा कि साधुसंतों की प्यास बुझाने का साधन तो पानी है और गृहस्थों की प्यास बुझती है अग्नि से। ऐसा मानना भयंकर भूल है। आत्म-विकास सत्य, अहिंसा आदि की साधना से ही संभव है।
१६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
आगे की सुधि
www.jainelibrary.org