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व्यक्ति के संचित पाप के कटने और नए बंधन से बचने का रास्ता खुल जाता है। इसी लिए संत दर्शन का इतना महत्त्व गाया गया है।
अच्छा रास्ता पाकर व्यक्ति अपने जीवन में ऐसा आचरण करे, जिससे उसकी आत्मा का कल्याण हो । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया हैधम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छई ॥
सांसारिक प्राणी शादी करता है, व्यापार करता है। दूसरे अनेक प्रकार के धंधों में जुटता है। उन सबमें भी धर्म की पुट रहे, यह अपेक्षित है। काम करना पड़ता है, यह एक अलग बात है, पर उसमें भी पाप से जितना बचाव हो सके, उतनी बचने की चेष्टा करनी चाहिए। किसान खेती करते हैं। उसमें अनेक जीव मर जाते हैं, पर संकल्पपूर्वक निरपराध प्राणी की हिंसा से वे भी बच सकते हैं। व्यापारी अपने व्यापार में ग्राहकों को धोखा न दें तो उनके व्यापार में भी धर्म की पुट रह सकती है।
यों तो धर्म की बहुत-सी बातें हैं, पर सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैअहिंसा । इसकी तुलना में अन्य कोई बात नहीं आ सकती। सारी अन्य बातें मिलकर भी इसकी बराबरी नहीं कर सकतीं। कोई कह सकता है कि मैं अहिंसा को नहीं मानता, इसलिए सबको सताऊंगा, लेकिन उससे यदि यह पूछ लिया जाए कि कोई तुझे सताए तो; सताना तेरे लिए बुरा है तो वह दूसरों के लिए अच्छा कैसे हो सकेगा । इसलिए व्यक्ति को सोचना चाहिए कि मैं अपनी ओर से किसी को तकलीफ न दूं। आज संसार दुखी है। उस दुःख का रहस्य हिंसा ही है। हिंसा दुःखों की जननी है। इसी लिए कहा गया है
हिंसा दुखां री बेलड़ी, हिंसा दुखां री अनंत जीव नरके गया, हिंसा तणा
फल
ठीक इसके विपरीत
खान ।
दया सुखां री बेलड़ी, दया सुखां री अनंत जीव मुगते गया, दया तणा फल जान ॥
खान ।
जान ॥
दया यानी अहिंसा । यह सुख की बेल है। इसके बीज बो देने के बाद फल लगते ही रहेंगे । और ये ऐसे फल हैं, जिन्हें खाकर संसार सुखी बन
सकेगा।
संत दर्शन का माहात्म्य
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