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२३ : आत्मा और पुद्गल
हमारे सामने दो तत्त्व हैं-अध्यात्म और भूत। अध्यात्म आत्मा को केंद्र मानकर चलता है तथा भूतवाद जड़ को आधार मानकर। अध्यात्म
और भूत दोनों शब्द प्राचीन हैं। जैन-दर्शन में भूत की जगह पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है। पुद्गल मूर्त पदार्थ है। वह दृश्य, श्रव्य, वक्तव्य, रस्य, गंध्य और स्पर्श्य है। यानी पुद्गल देखे जा सकते हैं, सुने जा सकते हैं, बोले जा सकते हैं, चखे जा सकते हैं, सूंघे जा सकते हैं और उनका स्पर्श किया जा सकता है। आत्मा का जन्म-मरण
आत्मा चेतन है और पुद्गल जड़ है। ये दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी हम आत्मा का सही रूप जान नहीं सकते। इसका कारण ? कारण यह कि हमारे सामने आत्मा का जो रूप है, वह जड़-चेतन का मिश्रण है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ज्ञान और दर्शनमय है। पुद्गल का स्वभाव है-गलन-मिलन। पुद्गल बनता और बिगड़ता है, जबकि आत्मा अजन्मा और अविनाशी है। आत्मा के मरने और जनमने की जो बात कही जाती है, उसका कारण है आत्मा के साथ चिपका हुआ पुद्गल-समूह।
साथ ही आत्मा के बिना शरीर का भी जन्म-मरण नहीं होता। अतः हमें मानना होगा कि आत्मा से संपृक्त शरीर एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया से जन्म-मरण करता रहता है। आत्मा का स्वरूप
आत्मा का सही स्वरूप बहुत कम लोग जानते हैं। इसका एक बड़ा कारण है-आत्मा के बारे में दर्शनों में मतैक्य का न होना। यह दर्शनों की विभिन्नता मिट भी नहीं सकती, क्योंकि जो व्यक्ति आत्मा को जिस रूप में देखता है, वह उसे उसी रूप में संसार को बताता है।
आत्मा और पुद्गल
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