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२५ : श्रद्धा और आचार की समन्विति
कई व्यक्ति सुनते बहुत हैं, पर श्रद्धा नहीं करते। कई श्रद्धा तो करते हैं, पर वह औपचारिक ही होती है,क्योंकि थोड़े समय के बाद वह उखड़ जाती है। कुछ व्यक्ति स्थायी श्रद्धा करते हैं, पर व्यवहार में तदनुरूप आचरण नहीं करते। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
सुइंच लधु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं। कान का सच्चा आभूषण
संसार में अच्छी बातें सुनना दुर्लभ है। कान सब मनुष्यों के हैं, पर इसका कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि वे तो पशु-पक्षियों और राक्षसों के भी होते हैं। मात्र उनके कान सार्थक हैं, जो उनका सही उपयोग करते हैं। आभूषणों से कानों को सजाना उनका सही उपयोग नहीं है,क्योंकि महान पुरुषों के लिए कृत्रिम आभूषणों की अपेक्षा ही नहीं रहती। आचार्य सोमप्रभ ने कहा है
करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं, मुखे सत्या वाणी श्रुतिमधिगतं च श्रवणयोः। हृदि स्वच्छावृत्तिर्विजयि भुजयोः पौरुषमहो!
विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम्॥ - जो व्यक्ति स्वभाव से महान होते हैं, उनके लिए अग्रोक्त सहज
आभूषण होते हैं-हाथ का आभूषण है-सुपात्र को दान देना, सिर का आभूषण है-विनम्रता, मुख का आभूषण है-सत्यवाणी, कानों का आभूषण है-सिद्धांत-श्रवण, हृदय का आभूषण है-स्वच्छवृत्ति
और भुजाओं का आभूषण है-पौरुष। रखू कैसे नहीं बहिनों को आभूषणों का विशेष आकर्षण रहता है। मैं कलरखेड़ा में
- आगे की सुधि लेइ
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