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प्रवर्तक हैं। उन्होंने दो बातों पर विशेष रूप से बल दिया
• मनुष्य तत्त्वज्ञ बने। • मनुष्य क्रियाशील बने।
उनके इन विचारों ने आगे चलकर जैन-धर्म के नाम से विस्तार पाया। कुछ लोग कहते हैं कि जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म प्रतिक्रियास्वरूप सामने आए थे। जब हिंदू संस्कृति में यज्ञ-याग और पशुबलि को प्रोत्साहन मिला तो कुछ लोगों ने क्रांति की। उनकी वह क्रांति ही जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म के रूप में प्रसिद्ध हुई, लेकिन यह कथन तथ्य से कोसों दूर है। कोई भी गंभीर इतिहास-अध्येता इसे स्वीकार नहीं कर सकता।
जैन-धर्म के विचार सर्वथा स्वतंत्र हैं। समता का सिद्धांत प्रतिक्रिया कैसे हो सकता है? भगवान महावीर ने कहा
• व्यक्ति औरों की शांति में बाधक न बने। • व्यक्ति औरों का सुख न लूटे।
व्यक्ति किसी का प्राण-वियोजन न करे। • व्यक्ति किसी को अस्पृश्य न माने। • व्यक्ति किसी पर अभियोग न लगाए।
इन विचारों के आधार पर चलनेवाला धर्म जैन-धर्म, अहिंसा-धर्म या समता-धर्म कहलाया। जैन-दर्शन के सामने कोई वैचारिक उलझन चुनौती बनकर खड़ी नहीं रह सकती। उसके पास अनेकांतवाद के रूप में एक ऐसा सिद्धांत है, जो हर उलझन को सुलझा सकता है।
बहुत-से लोग आत्मा को अमर मानते हैं। कुछ दार्शनिक उसे विनाशशील भी मानते हैं, लेकिन जैन-दर्शन कहता है कि आत्मा एक दृष्टि से शाश्वत है और दूसरी दृष्टि से अशाश्वत। इसी प्रकार जगत भी शाश्वत और अशाश्वत दोनों है। इस कथन के पीछे अपेक्षा है द्रव्य और पर्याय की। संसार का हर पदार्थ द्रव्यतः शाश्वत है और पर्याय दृष्टि से उसमें अवस्था-भेद होता रहता है। आज विज्ञान ने भी यह तथ्य स्वीकार कर लिया है। इस प्रसंग से हटकर मैं एक बात और कहना चाहता हूं। जब आत्मा और पुद्गल भी अपेक्षाभेद से शाश्वत नहीं हैं, उस स्थिति में हम
जैन-धर्म : एक वैज्ञानिक धर्म
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