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अड़ा रहता है, लेकिन तब तक ही, जब तक उसे स्वयं के गलत होने का भान नहीं हो जाता। अनाग्रही होना सबसे अच्छा है, क्योंकि उसके द्वारा किसी प्रकार के वाद-विवाद की संभावना नहीं रहती, परंतु अनाग्रही होने में भी विवेक होना अत्यंत आवश्यक है। गंगा गए तो गंगादास और यमुना गए तो यमुनादास-यह विवेक-शून्य अनाग्रह अच्छा नहीं होता। प्रसंग देवगढ़ का
मेवाड़ प्रदेश में देवगढ़ नाम का एक कस्बा है। वहां के रावजी के पास कई आदमी रहते थे। वे स्वयं को रावजी के परम भक्त मानते थे। एक दिन रावजी ने सोचा कि मेरे पास जो आदमी रहते हैं, उनकी पहचान तो करनी चाहिए कि ये सब मूर्ख ही हैं या इनमें कोई काम का आदमी भी है।
. एक दिन का प्रसंग। सब आदमी बैठे हुए थे। रावजी बोले-'देखो सभासदो! हमारे सामने जो चट्टान है, वह आजकल छोटी होने लग गई है।' छूटते ही सभी सभासद एक साथ बोल पड़े-'आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। हमें भी ऐसा ही लग रहा है।'
कुछ दिन व्यतीत हुए। एक दिन रावजी ने कहा-'अब तो यह चट्टान काफी छोटी हो गई है।' सभासदों ने हां में हां मिलाते हुए कहा-'आपकी बात सवा सोलह आना यथार्थ है। सचमुच चट्टान बहुत छोटी हो गई है।' लगभग एक महीने का समय निकल गया तो एक दिन रावजी ने कहा-'अब तो यह चट्टान पुनः बढ़ने लग गई है।' सभी सभासद एक स्वर में बोले-'हां, बिलकुल ऐसा ही है। चट्टान फिर बढ़ने लगी है।'
रावजी ने देखा कि ये मेरे तथाकथित स्वामिभक्त तो गोबर के किले हैं। इनमें इतना ही चिंतन नहीं है कि चट्टान भी कभी बढ़ या घट सकती है क्या। चट्टान कोई पौधा तो नहीं, जो पानी देने से बढ़ जाए और न देने से सूख जाए। उन्होंने उन सब व्यक्तियों के सामने यह बात कही तो वे. बोले-'आप हमारे स्वामी हैं। ऐसे में हम आपकी बात से असहमत कैसे हो सकते हैं ?' रावजी ने कहा-'तुम स्वामिभक्त जरूर हो, पर निरे मूर्ख हो। जिस व्यक्ति के पास सब निरे मूर्ख-ही-मूर्ख इकट्ठे हो जाएं, वह व्यक्ति कभी बड़ा नुकसान उठा सकता है। उसका अस्तित्व तक समाप्त हो सकता है।'
कहा जाता है कि रावजी ने उन सबकी छुट्टी कर दी। इस घटना से हम जान सकते हैं कि ऐसे विवेकहीन अनाग्रही भी अच्छे नहीं होते।
आग्रही वह होता है, जो अपना विचार या चिंतन ही सही मानता है
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- आगे की सुधि लेइ
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