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स्वाधीनता मत छीनो। किसी पर हकूमत मत करो, अपने विचार मत थोपो। किसी के अधिकारों में खलल मत पहुंचाओ। ऐसा करना हिंसा है।' जनतंत्र में इन भावनाओं को प्रश्रय मिलता है। इससे अहिंसा को पसरने के लिए एक विशाल मैदान मिल जाता है। ____एक जगह वैभव के ढेर लग जाएं और दूसरी जगह खाने के लिए रोटी भी न रहे, यह विषमता राष्ट्र के सुखी जीवन में बाधक है। जनतंत्र समता का पोषक है। वह व्यक्तिगत संग्रह को मूल्य नहीं देता, बल्कि उसे अनुचित मानता है। इस समता का फलित है-अपरिग्रह। जहां समता का सिद्धांत व्यवहार्य बन जाता है, वहां अपरिग्रह की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। अपरिग्रह धर्म का मौलिक सिद्धांत है। जहां-कहीं अपरिग्रह की भावना को बल मिलता है, वहां धर्म को ही पोषण मिलता है, धर्म का ही फैलाव होता है।
जनतंत्र में परस्पर विरोधी विचारवाले व्यक्ति साथ-साथ रह सकते हैं। एक स्थान पर बैठकर विचार-विनिमय का वहां पूरा अवकाश है। यह सह-अस्तित्व की बात है। जैन-धर्म का प्रमुख सिद्धांत अनेकांत कहता है कि परस्पर विरोधी विचार भी एक साथ रह सकते हैं। उनमें भी किसी अपेक्षा से सामंजस्य हो सकता है। मैं मानता हूं, जहां सत्य अनंत है, हर वस्तु अनंतधर्मा है और हर व्यक्ति को स्वतंत्र रूप में सोचने-देखने का अवकाश है, वहां विचार-भेद होना बहुत स्वाभाविक स्थिति है। विचार-भेद दो ही स्थितियों में नहीं हो सकता। प्रथम उस स्थिति में, जहां कोई स्वतंत्र विचारक होता ही नहीं, सब लोग उधार लिए हुए विचार ही काम लेते हैं। दूसरी स्थिति केवलज्ञानी होने की है। दो केवलज्ञानियों के बीच विचारों का पूरा-पूरा साम्य होता है।
बंधुओ! विचार-भेद के कारण लड़ना बहुत बड़ा पाप है। कभी-कभी विचार-भेद के कारण एक पक्ष के लोग अपने विरोधी को जिंदा जला देते हैं। ऐसा करना जनतंत्र का जनाजा निकालना है। वस्तुतः विरोधी विचार न सहना व्यक्ति की स्वयं की दुर्बलता है। इस दुर्बलता के कारण दूसरे का अस्तित्व समाप्त करना सर्वथा अनुचित है, अन्याय है। स्वस्थ जनतंत्र और धर्म-इन दोनों ही क्षेत्रों में ऐसी प्रवृत्ति को कोई अवकाश नहीं है।
__मैं जहां तक सोचता हूं, लोकतंत्र सफल हो तो धर्म और अध्यात्म को भी फलने-फूलने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है। जनतंत्र के विकास में
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