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लोगों को कायर बनाता है। मुझे लगता है कि यह भ्रांति दूसरों ने नहीं, बल्कि स्वयं जैनों ने फैलाई है। यह एक सचाई है कि दूसरे व्यक्ति उतना अनिष्ट नहीं कर सकते, जितना स्वयं के द्वारा होता है। बहुत-से तथाकथित जैनों ने अपनी जान बचाने के लिए अहिंसा की शरण ली। शत्रु मारने के लिए आए तो वे घरों में छिप गए। पूछा गया कि ऐसा क्यों, तो उनका उत्तर था-'अहिंसा की सुरक्षा के लिए।' बंधुओ! शक्ति के अभाव में अहिंसा की यह ओट लेना मखौल नहीं तो और क्या है? संभव है, ऐसे व्यक्तियों के कारनामे सामने आने से ही अहिंसा को कायरों का हथियार बता दिया गया।
वास्तव में अहिंसक वह होता है, जो मार सकता है, फिर भी किसी को मारता नहीं। जैन-तीर्थंकरों ने इस आदर्श को ही सच्ची अहिंसा कहा है। ऐसी अहिंसा को पालनेवाले ही सही अर्थ में अहिंसक हैं। ऐसे अहिंसक ही अहिंसा के पवित्र भाल पर लगा काला धब्बा धो सकेंगे। जैन-धर्म : जन-धर्म
बंधुओ! अहिंसा की तरह ही जैन-धर्म के दूसरे-दूसरे सिद्धांत भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, व्यापक हैं, पर जैनों की अपनी कमजोरी और उदासीनता के कारण इस धर्म का सही रूप जनता के सामने नहीं है। इसी लिए इसका फैलाव बहुत कम है। इसे सही रूप में जाननेवाले लोग भी बहुत थोड़े हैं, परंतु प्राचीनकाल में जैन-धर्म जन-धर्म के रूप में प्रतिष्ठित था। आज भी हम इसे जन-जन का बनाएं; इसे वर्ग, जाति, संप्रदाय... के बंधनों से निकालकर मानव-धर्म के रूप में संसार के सामने लाएं, यह नितांत अपेक्षित है। मेरी दृष्टि में वह धर्म सही माने में धर्म नहीं होता, जो मानव-मात्र को खुराक न दे। जैन-धर्म को पुनः जन-धर्म का रूप देने के लिए हमने एक प्रयत्न किया है। हमने जब देखा कि एक विशाल धर्म बनियों की कौमविशेष तक ही सीमित हो रहा है तो हमारे मन में पीड़ा हुई। उसी पीड़ा का परिणाम है-अणुव्रत। उसके माध्यम से हमने धर्म का सार्वजनीन रूप जन-जन तक पहुंचाया।
अणुव्रत व्यक्ति के लिए गृहस्थ-जीवन में रहते हुए धर्म को व्यावहारिक धरातल पर उतारने का उपक्रम है। संन्यासी के लिए अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि महाव्रतों का पालन करना आवश्यक होता है, लेकिन गृहस्थ के लिए यह संभव नहीं है, पर इसका अर्थ यह भी नहीं
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आगे की सुधि लेइ
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