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सत्य, अहिंसा आदि तत्त्व एक सीमा तक ही स्वीकार कर सकते हैं, संपूर्ण रूप में नहीं। इसे ध्यान में रखते हुए हम जन-साधारण को अणुव्रत की बात कहते हैं। अणुव्रत ऐसे छोटे-छोटे संकल्पों की आचार-संहिता है, जिसे स्वीकार कर चलने में गृहस्थ के आवश्यक काम भी नहीं रुकते और वह धार्मिक होने का अधिकार भी प्राप्त कर लेता है। जीवन जीने की कला
__ अणुव्रत कहता है चूंकि आप गृहस्थ हैं, इसलिए पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकते; राष्ट्र और धन-माल की सुरक्षा के लिए आपको सजग रहना पड़ता है, समय पर शस्त्र भी उठाना पड़ता है, पर कम-से-कम निरपराध प्राणी पर आक्रमण तो न करें; अनजान में किसी प्राणी की हत्या हो जाती है, पर संकल्पपूर्वक तो किसी प्राणी का वध न करें। इस सीमा तक अहिंसा का पालन तो हर कोई आसानी से कर सकता है। अणुव्रत कहता है, आप सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन सकते, तथापि एक सीमा तक तो सत्य की साधना अवश्य करें। ऐसा असत्य तो न बोलें, जिससे किसी का बहुत बड़ा अहित हो जाए, उसके साथ धोखा हो जाए, उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाए। इसी प्रकार अणुव्रत अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की भी एक सीमा में साधना की बात कहता है। अणुव्रत कहता है कि व्यक्ति अपना जीवन व्यसन-मुक्त रखे, खान-पान की विशुद्धि बनाए रखे-अखाद्य और अपेय का सेवन न करे। एक वाक्य में कहूं तो अणुव्रत जीवन जीने की कला है। यह कला सीखकर, अपनाकर किसी जाति, वर्ण, वर्ग..."का आदमी सुख और शांति का अनुभव कर सकता है। वर्षों से हम इसी अणुव्रत का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। इस प्रयत्न से आज तक हजारों-हजारों लोगों ने इसे समझा है, स्वीकार किया है और अपने जीवन में सुख-शांति. की धार बहाई है। आप लोग भी अणुव्रत को समझें, स्वीकार करें और जीवन में सुख-शांति की धार बहाएं। आपका जीवन सार्थक हो जाएगा।
हनुमानगढ़ १८ मार्च १९६६
सत्य की खोज
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