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सीमाकरण होना चाहिए।
जो साधु होता है, वह संपूर्ण परिग्रह का त्याग करता है। वर्तमान में उसके पास कोई संग्रह नहीं होता। भविष्य में किसी प्रकार के संग्रह का प्रश्न ही नहीं होता। आप देखते ही हैं कि किसी प्रकार की भेंट भी वह स्वीकार नहीं करता। अतीत का संग्रह-परिग्रह तो दीक्षा के साथ ही समाप्त हो जाता है।
___ साधु-संन्यासी भी देहधारी होते हैं। देहधारी के लिए भोजन, वस्त्र, मकान आदि की अपेक्षा रहती है। तब प्रश्न पैदा होता है कि सर्वथा असंग्रह की इस स्थिति में अपेक्षा कैसे पूरी होती है। आवश्यकता पूर्ति का साधन है-भिक्षा। वैसे आज भिक्षा शब्द विकृत हो गया है। ऐसे भिखारियों की संख्या तेजी के साथ बढ़ रही है, जो मक्खियों की तरह भिनभिनाहट करते रहते हैं। मूलतः भिक्षा उनके लिए आवश्यक होती है, जो अकिंचन होते हैं। वे सहज-प्राप्त भिक्षा से अपना जीवनयापन करते है। सहज का अर्थ है कि उनकी भिक्षा का किसी पर कोई भार नहीं होता। उसकी कहीं कोई तैयारी नहीं होती। आज आपके शहर में यदि हम दो सौ साधु भी इकट्ठे हो जाएं तो भी किसी को कोई कठिनाई नहीं हो सकती। भगवान महावीर ने साधु-साध्वियों के लिए ऐसी सुंदर भिक्षाविधि बताई है, जिससे उनकी आवश्यकता भी पूरी हो जाती है और गृहस्थ पर भी कोई भार नहीं पड़ता। साधु-साध्वियों की इस भिक्षाविधि का नाम है 'गोचरी'। गौ और गर्दभ के चरने में अंतर है। गौ चलती जाती है और थोड़ा-थोड़ा खाती जाती है। इससे बूंटों को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचता और गौ का पेट भी भर जाता है। इसके विपरीत गधा फूंक देकर पौधा उखाड़ देता है। साधु गौ की तरह चलता है। बीस-चालीस घरों में जाता है और थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करता रहता है। थोड़ा-थोड़ा से तात्पर्य है कि वह मात्र उतनी भिक्षा ग्रहण करता है, जिससे गृहस्थ को पीछे कमी न खले। इसमें भी जाति, वर्ण, वर्ग, अमीर, गरीब का कोई भेद नहीं होता। जहां भी शुद्ध/सहज भिक्षा मिलती है, वहां से वह ग्रहण कर लेता है।
कई बार भिक्षावृत्ति के विरोध में कानून बनाने का प्रयत्न होता है। उसमें हमें भी घसीट लिया जाता है। इसका कारण है अज्ञान, अन्यथा ऐसी सुंदर भिक्षा-विधि से किसी को कोई आपत्ति होने का प्रश्न ही पैदा
शांति का मार्ग अपरिग्रह
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